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परोक्षप्रमाण
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जैन - ऐसा कहना ठीक नहीं है, शब्दका अर्थ सामान्य नहीं है, किन्तु सामान्यवान् है इसका आगे समर्थन करेंगे ।
शब्द और अर्थ - दोनोंको नित्य माननेपर उभय पक्षमें दिये गये दोषोंका प्रसंग आता है, अतः सम्बन्धियोंके नित्य होनेसे भी सम्बन्ध नित्य नहीं है । जरा देर के लिए शब्दार्थसम्बन्धको नित्य मान भी लिया जाये तो यह प्रश्न पैदा होता है कि वह सम्बन्ध कैसे जाना जाता है - इन्द्रिय प्रत्यक्ष से अथवा अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष से अथवा अनुमानसे । प्रथम पक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि नित्य स्वभावका किसी भी इन्द्रियसे प्रत्यक्ष होना सम्भव नहीं है । यदि वह अतोन्द्रिय है तो उससे अर्थका ज्ञान कैसे हो सकता है; क्योंकि जो अज्ञात है वह ज्ञापक ( दूसरेका ज्ञान करानेवाला ) नहीं हो सकता । इससे अनुमानसे भी नित्य सम्बन्धको प्रतीति नहीं हो सकती। क्योंकि सम्बन्धका अप्रत्यक्ष होनेपर प्रत्यक्षपूर्वक रूपसे शब्दार्थसम्बन्ध के विषय में अनुमान की प्रवृत्ति नहीं हो सकती; क्योंकि कोई भी लिंग अविनाभाव सम्बन्ध ग्रहण किये बिना अनुमानका उत्पादक नहीं हो सकता । और शब्दार्थ सम्बन्धके अप्रत्यक्ष होनेपर अविनाभाव सम्बन्धका ग्रहण कर सकना अशक्य है । अतः किसी भी प्रमाणसे शब्दार्थ के नित्य सम्बन्धकी प्रतीति नहीं होती । अतः उसे अनित्य ही मानना चाहिए ।
शब्दार्थ के अनित्य सम्बन्ध माननेमें मीमांसकोंने पहले जो आपत्तियाँ उपस्थित की हैं वे विचारपूर्ण नहीं हैं । शाब्दव्यवहार अनादि है; क्योंकि विद्यमान जगत्का निर्मूल विनाशरूप महाप्रलय और फिर अविद्यमान जगत् की सृष्टि न हम जैन ही मानते हैं और न मीमांसक ही मानते हैं । अतः सृष्टि के आरम्भ में शब्दार्थ सम्बन्ध प्रत्येक पुरुषके प्रति किया जाता है आदि, कथन व्यर्थ ही है । यदि शब्दार्थसम्बन्धको नित्य माना जाता है तब भी उसकी अभिव्यक्ति तो अनित्य ही माननी होगी । उसमें भी ये सब दूषण दिये जा सकते हैं । अतः योग्यतारूप सम्बन्धके द्वारा ही शब्द अर्थका प्रतिपादक होता है । यही मानना श्रेष्ठ है ।
शब्द के अर्थके विषय में बौद्धोंका पूर्व पक्ष - बौद्धोंका कहना है कि श्रुत अविसंवादी नहीं हो सकता; क्योंकि जो शब्द सत् अर्थमें देखे जाते हैं वे ही शब्द अर्थके अभाव में भी देखे जाते हैं । अत: शब्द विधिरूपसे अर्थका कथन नहीं करते । इसलिए अन्यापोह को ही शब्दार्थ मानना चाहिए । बौद्ध मत के अनुसार
१. न्या० कु० च०, पृ० ५५१ । प्रमाणवा० ३।२०७ | २. तत्त्व सं० पं० पृ० २७४ | प्रमाणवा० टी० ११४८ :
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