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जैन न्याय
नहीं है । इसी तरह प्रत्येक अर्थका सम्बन्ध कर सकना भी अशक्य है; क्योंकि अर्थोंका अन्त नहीं है तथा वे दूर-दूर देशों में फैले हुए हैं । अतः शब्द और अर्थका सम्बन्ध नित्य ही मानना चाहिए। उसकी प्रतीति तीन प्रमाणोंसे होती है । जब एक मनुष्य दूसरे मनुष्यको, जिसने शब्द और अर्थका सम्बन्ध ग्रहण कर लिया है, कहता है - देवदत्त ! डण्डेसे सफेद गौको भगाओ । तो पास में खड़ा हुआ दूसरा मनुष्य जिसने शब्द और अर्थका सम्बन्ध ग्रहण नहीं किया है, श्रवणेन्द्रियसे शब्दको सुनता है और चक्षुके द्वारा अर्थका प्रत्यक्ष करता है । वह देखता है कि उक्त वाक्यको सुनते ही देवदत्त नामक पुरुष डण्डा लेकर सफेद गौको भगाता है अतः वह अनुमानसे जान लेता है कि इन शब्दोंका यह अर्थ है । उसके पश्चात् अन्यथा - नुपपत्तिसे वह यह निश्चय करता है कि इन शब्दोंमें इस प्रकारके अर्थको कहने की शक्ति न होती तो शब्दों को सुनते ही देवदत्त ऐसा न करता ।
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अतः इन शब्दों में इस अर्थको कहने की शक्ति है । इस प्रकार शब्द और अर्थके नित्य सम्बन्धकी प्रतीति प्रत्यक्ष, अनुमान और अर्थापत्ति प्रमाणसे होती है । उत्तरपक्ष- • जैनों का कहना है कि विचार करनेपर शब्द और अर्थका नित्य सम्बन्ध नहीं बनता । इसका विशेष इस प्रकार है शब्द और अर्थका नित्य सम्बन्ध स्वभावसे ही है अथवा सम्बन्धियोंके नित्य होनेसे उनका सम्बन्ध भी नित्य है ? यदि स्वभावसे ही है तो इस नित्य सम्बन्धको सदा सबके प्रति अर्थका प्रकाशन करना चाहिए। शायद कहे कि संकेतके द्वारा व्यक्त होनेपर ही यह नित्य सम्बन्ध शब्दार्थका प्रकाशक होता है, तो फिर यह नित्य एकरूप तो नहीं रहा । तब तो व्यक्त और अव्यक्त रूपसे उसके भेद हो जाते हैं; वस्तु यदि व्यक्त है तो सर्वदा व्यक्त ही रहेगी। दूसरे, यदि होनेपर ही नित्य सम्बन्ध शब्दार्थका प्रकाशक है तो संकेत तो पुरुषाधीन है । ऐसी स्थिति में वह पुरुष अतीन्द्रिय ज्ञानसे रहित होनेके कारण वेदमें विपरीत संकेत भी कर सकता है । और ऐसा होनेसे वेद अप्रमाण ठहरेगा । अतः सम्बन्ध स्वभावसे नित्य नहीं है । सम्बन्धियोंके नित्य होनेसे भी सम्बन्ध नित्य नहीं है; क्योंकि नित्य सम्बन्धी कौन है शब्द है, अथवा अर्थ है, अथवा दोनों हैं ? शब्द तो नित्य नहीं है, आगे शब्दकी नित्यतापर विचार किया जायेगा । अर्थ भी नित्य नहीं है; क्योंकि घटादि अर्थोकी अनित्यता प्रत्यक्ष से ही सिद्ध है ।
क्योंकि नित्य एकरूप संकेतके द्वारा व्यक्त
मीमांसक - शब्दका अर्थ सामान्य है । और सामान्य नित्य है, इसलिए सामान्य आश्रित सम्बन्ध भी नित्य है ।
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१. मी० श्लो०, सम्बन्ध०, १४०-१४१
२. न्या० कु० च०, पृ० ५४६ । ५५० । प्रमेयक० मा० ४०४-४२७ ।
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