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जैन न्याय
बौद्ध-आप्त पुरुष भी यदि कहे कि 'मेरी अंगुलीकी नोकपर सैकड़ों हाथो बैठते हैं । तो सुननेवालेको मिथ्या ज्ञान होता है। अतः इस प्रकारका मिथ्या ज्ञान उत्पन्न करना शब्दोंका काम है । इसमें वक्ताके दोष कारण नहीं हैं ?
जैन-आप्त पुरुष इस प्रकारके निरर्थक वाक्य नहीं बोलते । यदि वे दूसरोंको इस प्रकारके वाक्य बोलनेका निषेध करते हुए कहते हैं कि मेरी अंगुलीकी नोकपर सो हाथी बैठते हैं' ऐसा वाक्य नहीं बोलना चाहिए तो उनका वैसा कहना उचित ही है । अतः आप्तके द्वारा कहे हए शब्द अयथार्थ नहीं हो सकते । इसलिए 'शब्द स्वयं अर्थका स्पर्श नहीं करते' ऐसा मानना गलत है, किन्तु पुरुषके दोषोंकी वजहसे ही शब्द अयथार्थ होते हैं । ___ बौद्ध-पुरुष गुणवान् हो अथवा सदोष हो, उसका काम तो शब्दोंका उच्चारण मात्र कर देना है। अर्थका ज्ञान तो शब्दोंसे ही होता है, अतः यदि ज्ञान विपरीत होता है तो इसमें शब्दोंका ही अपराध है, वक्ताके दोषोंका नहीं ?
जैन-तब तो गुणवान वक्ताके शब्दोंसे जो सत्य अर्थका ज्ञान होता है उसे भी शब्दका ही कार्य मानना होगा, वक्ताके गुणोंका नहीं। और ऐसी स्थितिमें शब्दको सर्वथा अयथार्थ मानना उचित नहीं होगा।
अतः चक्षु की तरह अर्थमात्रको प्रकाशित करना ही शब्दका स्वरूप है। और यथार्थ अथवा अयथार्थका प्रकाशन करना गुणों और दोषोंका काम है। जैसे निर्मलता आदि गुणोंके होनेपर चक्षु वस्तुका ठीक-ठीक प्रकाशन करते हैं और काच कामल आदि दोषोंके होनेपर कुछका कुछ दिखलाते हैं, इसी तरह शब्द भी वक्ताके गुणों और दोषोंकी अपेक्षासे सत्य अथवा असत्य वस्तुका कथन करता है। अतः अर्थका ज्ञान कराने में निमित्त होनेसे प्रत्यक्ष आदिकी तरह ही शब्द भी प्रमाण है। शब्दके द्वारा ही स्वपक्षका साधन और परपक्षका निराकरण किया जाता है, तथा उसीके द्वारा समस्त तत्त्वोंमें उत्पन्न हुए विवादको दूर किया जाता है।
मीमांसकका पूर्वपक्ष-मीमांसक का कहना है कि शब्दका अर्थके साथ सम्बन्ध है यह तो ठीक है, किन्तु विचारणीय यह है कि शब्द और अर्थका सम्बन्ध नित्य है अथवा अनित्य है। अनित्य मानना ठीक नहीं है; क्योंकि अनित्य सम्बन्धका करना शक्य नहीं है। 'यह संज्ञा इस अर्थकी है' इस प्रकारका सम्बन्ध
१. न्या० कु. च०, पृ० ५४३ ।
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