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________________ परोक्षप्रमाण २३९ पाया जाता है । जैसे मालवे में कर्कटिका ( ककड़ो ) शब्दका अर्थ फलविशेष होता है और गुजरातमें उसका अर्थ 'योनि' होता है। देखा जाता है कि सर्वत्र रूपको जानने में समर्थ चक्षु भो पासमें अन्धेरा होनेपर दूरवर्ती रूपको जानती है, दूरमें अन्धेरा होनेसे समीपवर्ती रूपको जानती है, विशिष्ट अंजन लगा लेनेसे अन्धकारमें स्थित वस्तुको भी जान लेती है, किन्तु आँखमें कांच-कामला रोग होनेसे पीत रंगके अभावमें भी श्वेत शंखको पीत रूपसे जानती है । अत: जैसे अनेक रूपोंको जानने में समर्थ होते हए भी चक्ष प्रतिनियत सहायकको वजहसे प्रतिनियत रूपका ही ज्ञान कराती है वैसे ही अनेक अर्थोंको कहनेको शक्ति होते हुए भी शब्द प्रतिनियत संकेतकी वजहसे प्रतिनियत अर्थका ही प्रतिपादन करता है । बौद्ध-जब चक्षकी तरह शब्दका अर्थके साथ योग्यता रूप सम्बन्ध है तो चक्षुको हो तरह शब्द संकेत ग्रहणके बिना ही अर्थका ज्ञान क्यों नहीं कराता ? जैन-शब्द ज्ञापक है अतः वह संकेतको अपेक्षासे ही अर्थका ज्ञान कराता है; क्योंकि जो ज्ञापक होता है वह ज्ञापक और ज्ञाप्यके सम्बन्धको जिसने पहलेसे जान लिया है उस पुरुषको ही ज्ञाप्यका ज्ञान कराता है; जैसे धूम। इसी तरह शब्द भी ज्ञापक है। किन्तु चक्षु ज्ञापक नहीं है, कारक है, अतः वह सम्बन्ध ग्रहणके बिना ही रूपादिमें ज्ञानको उत्पन्न करता है। जो स्वयं प्रतीयमान होकर अज्ञात अर्थको प्रतीतिमें हेतु होता है उसे ज्ञापक कहते हैं। यह बात शब्दमें हो है, चक्षु में नहीं है । अतः शब्द संकेतग्राही पुरुषको ही अपने अर्थका ज्ञान कराता है। शक्ति तो स्वाभाविक है। अतः जैसे रूपके प्रकाशनको चामें शक्ति है, वैसे ही अर्थके प्रकाशनकी शक्ति शब्दमें है। अतः बौद्धोंका यह कहना कि 'शब्द अर्थको नहीं छूता', ठीक नहीं है, क्योंकि आप्तका शब्द अर्थको स्पर्श नहीं करता, अथवा अनाप्तका शब्द अर्थको स्पर्श नहीं करता या शब्दमात्र अर्थको स्पर्श नहीं करता ? प्रथम पक्षमें प्रत्यक्ष बाधा है; क्योंकि यदि कोई आप्त (प्रामाणिक ) पुरुष यह कहे कि 'नदीके किनारे फल हैं' और उसको सुनकर कोई नदीके किनारे जाये तो उसे अवश्य फल मिल जाते हैं । यदि अनाप्त ( अप्रामाणिक ) पुरुषके शब्द अर्थको स्पर्श नहीं करते तो सब शब्दोंको अर्थको न छूनेवाला क्यों कहते हो। यदि ऐसा कहोगे तो काच कामल रोगी मनुष्यका प्रत्यक्ष अर्थका ठीक ज्ञान नहीं कराता, इसलिए निर्दोष चक्षुसे उत्पन्न हुए प्रत्यक्षको भी मिथ्या मानना पड़ेगा। इसीसे तीसरा विकल्प भी खण्डित हुआ समझना चाहिए; क्योंकि आप्त और अनाप्त पुरुषोंके द्वारा उच्चारित शब्दोंके सिवाय कोई शब्द मात्र नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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