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जैन न्याय
है उसीको शब्द अपने अर्थको कहता है, और जिसे इस प्रकारका संकेतज्ञान नहीं होता उसे शब्द सुनकर भी अर्थका ज्ञान नहीं होता है। अन्यथा उस युवकको धूम देखकर अग्निका भी ज्ञान हो जाना चाहिए।
बौद्ध-जिस पुरुषमें साध्य और साधनके अविनाभाव सम्बन्धको जाना है, उसे ही साधनको देखकर साध्यका ज्ञान होता है, सबको नहीं हो सकता ।
जैन-तो जिसने शब्द और अर्थके संकेतको जाना है उसीको शब्द सुनकर वाच्य अर्थका बोध होता है ऐसा मानना चाहिए।
बौद्ध-शब्द और अर्थका संकेत तो पुरुष अपनी इच्छानुसार करते हैं, किन्तु वस्तुको व्यवस्था पुरुषको इच्छानुसार होना उचित नहीं है । ऐसा होनेसे बड़ी गड़बड़ी उपस्थित होगी। तब तो अर्थ भी वाचक और शब्द भी वाच्य क्यों नहीं हो जायेगा; क्योंकि पुरुषकी इच्छा तो निरंकुश है ?
जैन-ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि जैसे धूम और अग्निका अविनाभाव सम्बन्ध स्वाभाविक है फिर भी उसके ग्रहण करने के लिए तर्क आदिकी आवश्यकता पड़ती है। वैसे ही शब्द और अर्थमें वाच्य-वाचकशक्तिरूप सम्बन्ध स्वाभाविक ही है, केवल उसको जाननेके लिए संकेत ग्रहणकी आवश्यकता होती है। यदि इस स्वाभाविक सम्बन्धमें व्यतिक्रम किया जायेगा तो दोपक और घटमें जो प्रकाश्य-प्रकाशक शक्ति है, उसमें भी व्यतिक्रमकी आपत्ति खडी होगी। और ऐसा होनेपर दीपक प्रकाश्य और घट प्रकाशक हो जायेगा। यदि ऐसा होना प्रतीतिविरुद्ध है तो शब्दका वाच्य और अर्थका वाचक होना भी प्रतीतिविरुद्ध है।
बौद्ध-शब्दमें एक अर्थका ज्ञान करानेको स्वाभाविक शक्ति है अथवा अनेक अर्थका ज्ञान करानेकी स्वाभाविक शक्ति है ? यदि एक अर्थका ही ज्ञान करानेकी शक्ति है तो जैसे धूमसे कभी भी अग्निके सिवा अन्यका ज्ञान नहीं हो सकता वैसे ही सैकड़ों संकेत करनेपर भी शब्द अपने नियत अर्थका ही बोध करायेगा, उसके सिवा अन्य अर्थका बोध नहीं करा सकता। और यदि शब्दमें अनेक अर्थों का ज्ञान करानेको स्वाभाविक शक्ति है तो उससे एक साथ अनेक अर्थों का ही बोध होगा, प्रतिनियत अर्थका बोध नहीं होगा।
जैन-यह चर्चा भी ठीक नहीं है, सब शब्दोंमें सब अर्थोंको कहनेको शक्ति होती है, किन्तु प्रतिनियत संकेत कर लेनेसे प्रत्येक शब्द प्रतिनियत अर्थका ही प्रतिपादन करता है। एक ही शब्दका विभिन्न देशोंमें विभिन्न अर्थोंमें संकेत
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