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परोक्षप्रमाण
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वाक्य बोलता है वह आप्त नहीं है । तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि यदि निर्दोष वक्ता के द्वारा इस प्रकारके वाक्योंका ( अंगुलिके अग्रभागमें सो हाथी रहते हैं ) प्रयोग होनेपर भी उन्हें सुनकर श्रोताको अयथार्थ ज्ञान उत्पन्न न होता तो यह माना जा सकता था कि इस प्रकारके अयथार्थ ज्ञान करानेका कारण वक्ताका दोष है । किन्तु जब आप कहते हैं कि आप्त पुरुष इस प्रकारके वाक्यों का प्रयोग नहीं करता तब तो हमें यह सन्देह बना ही रहता है कि शब्दों के अभावके कारण अयथार्थ ज्ञान उत्पन्न नहीं होता अथवा दोषोंके अभाव के कारण अयथार्थ ज्ञान उत्पन्न नहीं होता । दूसरे, इस प्रकारके वाक्योंका प्रयोक्ता आप्त भी हो सकता है; क्योंकि इस प्रकारके शब्दोंका उच्चारण करनेपर भी उसके अन्तरंग में दोषोंके न होनेसे उसके आप्त होने में कोई विरोध नहीं आता । आप्त भी किसीको उपदेश देते हुए कह सकता है कि 'मेरी अंगुलिके नोक में सौ हाथी रहते हैं।' इस प्रकारके वाक्य नहीं बोलना चाहिए। अतः यह शब्दोंकी ही महिमा है, दोषोंकी नहीं । अतः विकल्प वासनासे शब्दोंका जन्म होता है और शब्दोंसे विकल्पोंका जन्म होता है । शब्द अर्थको छूता भी नहीं है ।
उत्तरपक्ष-- जैनों का कहना है कि शब्द और अर्थ में तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बन्ध न होनेपर भी योग्यता रूप सम्बन्ध पाया जाता है । जैसे वक्षुका घटादिके रूपके साथ तादात्म्य तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं होनेपर भी योग्यता रूप सम्बन्ध देखा जाता है ।
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बौद्ध-- यदि योग्यता रूप सम्बन्धसे शब्द अर्थका वाचक है तो अर्थ भी शब्दका वाचक क्यों नहीं होगा ।
जैन -- ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि पदार्थोंकी शक्तियाँ निश्चित होती हैं । जैसे ज्ञानमें ज्ञापक शक्ति और ज्ञेयमें ज्ञाप्य शक्ति नियत है वैसे ही शब्द में प्रतिपादक शक्ति और अर्थ में प्रतिपाद्य शक्ति प्रतिनियत है । अर्थात् शब्द में कहने की शक्ति है और अर्थ में कहे जानेको शक्ति है । इसीका नाम योग्यता है ।
बौद्ध-- यदि शब्द योग्यताको वजहसे अर्थको कहता है तो जन्मसे ही पृथ्वी के गर्भ में पले हुए युवकको भी शब्द सुनकर अर्थका बोध होना चाहिए । जैन - ऐसा कहना भी उचित नहीं है क्योंकि 'इस शब्दका यह अर्थ वाच्य है और इस अर्थका वाचक अमुक शब्द है' इस प्रकारका संकेतज्ञान जिसे होता
१. न्या० कु० च०, पृ० ५३८ ।
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