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________________ २३६ जैन न्याय मनुष्य वक्ताकी इच्छा मात्रको जाननेके लिए शास्त्र सुनना पसन्द करेगा। तथा सार्थक और निरर्थक सभी शब्द समान हो जायेंगे; क्योंकि सभी शब्द उच्चारणको इच्छा मात्रको ही कह सकेंगे। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि तोतामैना आदि उक्त अभिप्रायसे शब्दका उच्चारण नहीं करते। अतः शब्दको केवल विवक्षामें प्रमाण मानना उचित नहीं है। किन्तु शब्द वक्ताके अभिप्रायसे भिन्न बाह्य अर्थका वाचक है, ऐसा माने बिना सच और झूठकी व्यवस्था नहीं बन सकती। अतः शब्द अनुमान प्रमाण नहीं है; क्योंकि उसका विषय तथा उसकी उत्पादक सामग्री अनुमानसे भिन्न है। बौद्धोंका पूर्वपक्ष-बौद्धोंका कहना है कि 'शब्दका अनुमान प्रमाणमें अन्तर्भाव नहीं होता' यह कहना उचित ही है यदि शब्दप्रमाण होता तो उसका अनुमानमें अन्तर्भाव करनेका प्रयास ठीक था, किन्तु शब्द तो प्रमाण ही नहीं है और उसके अप्रमाण होनेका कारण यह है कि शब्दका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। यदि शब्द और अर्थका कोई सम्बन्ध है तो वह तादात्म्य सम्बन्ध है या तदुत्पत्ति सम्बन्ध है ? तादात्म्य सम्बन्ध तो हो नहीं सकता; क्योंकि शब्द भिन्न स्थानमें रहता है और अर्थ भिन्न स्थानमें रहता है। तथा यदि शब्द और अर्थका तादात्म्य माना जायेगा तो छुरा शब्दका उच्चारण करते ही मुख चिर जायेगा और लड्डु शब्द कहते ही मुख लड्डु से भर जायेगा; क्योंकि शब्द और अर्थ एक ही है । इसी तरह शब्द और अर्थमें तदुत्पत्ति सम्बन्ध भी नहीं है; क्योंकि अर्थके अभावमें भी शब्दको उत्पत्ति देखी जाती है। अतः जब शब्द बाह्य अर्थका ज्ञान नहीं करा सकते तब उन्हें प्रमाण कैसे माना जा सकता है। केवल विकल्प वासनासे हो शब्दोंका जन्म होता है तभी तो वे ऐसे-ऐसे ज्ञान कराते हैं, जिनमें बाह्य अर्थकी गन्ध भी नहीं पायी जाती। जैसे-अंगुलिके अग्रभागमें सौ हाथी हैं।' शायद कहा जाये कि इस प्रकारके ज्ञान कराने में शब्द कारण नहीं है किन्तु पुरुषका दोष ही कारण है। किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि दोषी मनुष्य यदि गंगा हो तो इस प्रकारका असत्य ज्ञान नहीं करा सकता । और हृदयमें कलुषता नहीं होनेपर भी यदि कोई आप्त पुरुष इस प्रकारका वाक्य कह दे तो सुननेवालेको तुरन्त असत्य ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। अतः यह शब्दोंकी ही महिमा है, वक्ता पुरुषके दोषोंका इसमें कोई अपराध नहीं है, शायद आप कहें कि आप्त पुरुष इस प्रकारके निरर्थक वाक्य नहीं बोल सकता और जो ऐसे १. प्रमाण वा० टी० ३ । २१२ । तत्त्वसंग्रह, पृ० ४४० । २. प्रमाण वा० टी०१।२८८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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