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________________ परोक्षप्रमाण २३५ अनुमानप्रमाणसे भिन्न है । अतः अभिन्न विषय होनेसे शब्दको अनुमान मानना उचित नहीं हैं। इसी तरह अभिन्न सामग्री होनेसे भी शब्दको अनुमान मानना उचित नहीं हैं; क्योंकि जिस सामग्रीसे अनुमान उत्पन्न होता है वह सामग्रो शब्दमें सम्भव नहीं है। अनुमानकी सामग्री है - पक्षधर्मता, सपक्ष सत्व और विपक्षमें असत्व । यह सामग्री शब्दमें सम्भव नहीं है क्योंकि यहाँ कोई धर्मी नहीं है । ___इसी तरह शब्द और अर्थमें अन्वय और व्यतिरेक भी नहीं है। जैसे, जहाँ धूम होता है वहाँ अग्नि अवश्य होती है, इसी तरह जहाँ शब्द होता है वहाँ अर्थ अवश्य होता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। क्योंकि शब्द तो मुखमें रहता है और अर्थ ( वस्तु) भूमिपर रहता है। तथा व्यवहारी पुरुष भी ऐसा नहीं मानते । क्योंकि जहाँ-जहाँ 'पिण्डखजूर' शब्द सुना जाता है, वहाँ पिण्डखजूरोंका अस्तित्व कौन व्यवहारी मानता है। इसी तरह "जिस कालमें शब्द हो उस कालमें उसका अर्थ अवश्य हो' ऐसी बात भी नहीं है। रावण और शंख चक्रवर्ती शब्द आज भी वर्तमान हैं, किन्तु रावण कभीका मर चुका और शंख चक्रवर्ती भविष्यमें होगा। अतः शब्द और अर्थमें अन्वय नहीं है और जब अन्वय नहीं है तो व्यतिरेक भी नहीं है; क्योंकि अन्वयपूर्वक ही व्यतिरेक होता है । 'जो शब्द जिस अर्थमें देखा जाता है वह उसका वाचक होता है और जिस अर्थमें नहीं देखा जाता उसका वाचक नहीं होता।' इस प्रकारका अन्वयव्यतिरेक तो हम भी मानते हैं, किन्तु इस प्रकारका अन्वयव्यतिरेक होनेसे ही शब्द अनुमान नहीं हो सकता। इस प्रकारका अन्वयव्यतिरेक तो प्रत्यक्ष में भी पाया जाता है, क्योंकि जहाँ घट होता है वहाँ उसका प्रत्यक्ष भी होता है और जहां घट नहीं होता वहाँ उसका प्रत्यक्ष भी नहीं होता। अतः प्रत्यक्ष भी अनुमान हो जायेगा। _ 'शब्द केवल वक्ताकी इच्छा ( विवक्षा) में ही प्रमाण है बाह्य अर्थमें प्रमाण नहीं है' ऐसा कहना भी असंगत है । यदि शब्दका विषय केवल विवक्षा ही माना जायेगा तो उससे बाह्य पदार्थों में प्रवृत्ति आदि नहीं हो सकती क्योंकि बाह्य अर्थ आपके मतसे शब्दका विषय नहीं है। किन्तु ऐसा मानना प्रतीतिविरुद्ध है, शब्दोंसे बाह्य अर्थको प्रतीति, बाह्य अर्थ में प्रवृत्ति तथा बाह्य अर्थकी प्राप्ति बच्चों तकको होती है। अतः बाह्य पदार्थ ही शब्दका विषय है । दूसरे, विवक्षासे आपका क्या अभिप्राय है ? शब्द उच्चारणको इच्छाका नाम विवक्षा है, अथवा अमुक शब्दसे अमुक अर्थको कहनेका अभिप्राय ? प्रथमपक्षमें वक्ता और श्रोताकी शास्त्ररचनामें तथा शास्त्र सुननेमें प्रवृत्ति नहीं होगी; क्योंकि कौन समझदार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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