________________
जैन न्याय
गड़बड़ी पैदा हो जायेगी । अतः शब्द सम्बद्ध अर्थको ही कहता है और सम्बद्ध अर्थका ही ज्ञान करानेसे शब्दमें और लिंगमें कोई भेद नहीं रहता। इसी तरह दोनों एक ही सामग्रीसे उत्पन्न होते हैं; क्योंकि जैसे अनुमानमें साध्य और साधन. के सम्बन्धके स्मरणकी अपेक्षासे साधनसे साध्यका ज्ञान होता है वैसे ही वाच्य और वाचकके सम्बन्धके स्मरणकी अपेक्षासे शब्द अर्थका ज्ञान कराता है । तथा जैसे अनुमानमें अन्वयव्यतिरेक रहता है वैसे ही शब्दमें भी अन्वयव्यतिरेक रहता है। क्योंकि लोकमें जो शब्द जिस अर्थमें देखा जाता है वह उसका वाचक होता है और जिस अर्थमें नहीं देखा जाता उसका वाचक नहीं होता। तथा शब्दमें भी पक्षधर्मता रहती है। जैसे, अमुक शब्द अर्थवाला है, शब्द होनेसे । सारांश यह है कि जैसे प्रत्यक्षसे धूम देखकर अग्निका ज्ञान होता है। वैसे ही शब्द सुनकर उसके अर्थका भी ज्ञान होता है। शायद कहा जाये कि लिंगसे साध्यका ज्ञान करने में दृष्टान्तको अपेक्षा होती है, किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अभ्यस्त विषयमे लिंग और शब्द दोनों ही दृष्टान्तकी अपेक्षाके बिना ही साध्य और अर्थका ज्ञान कराते हैं। तथा शब्द केवल वक्ताको इच्छामें ही प्रमाण है, बाह्य अर्थ में प्रमाण नहीं है। क्योंकि उसमें व्यभिचार दोष पाया जाता है । जैसे 'मेरी अँगुलिके अग्र भागपर सौ हाथी बैठे हैं। इस प्रकारके शब्द बाह्य अर्थमें प्रमाण नहीं हो सकते; क्योंकि ऐसा होना प्रतीतिविरुद्ध है। और जब शब्द बाह्य अर्थमें प्रमाण न होकर विवक्षामें ही प्रमाण है तो उसमें और लिंगमें कोई भेद नहीं रहता। ___ उत्तरपक्ष-जैनोंका कहना है कि शब्द और अनुमान प्रमाणको एक बतलाना ठीक नहीं है; क्योंकि दोनोंका विषय एक नहीं है । शब्दका विषय केवल अर्थ है, किन्तु अनुमानका विषय साध्यधर्मसे युक्त धर्मी है । तथा यदि इस तरह विषयका अभेद होनेसे प्रमाणोंमें अभेद माना जायेगा तब तो प्रत्यक्ष और अनुमानमें भी अभेदका प्रसंग आयेगा; क्योंकि सभी प्रमाण सामान्य-विशेषात्मक वस्तुको विषय करते हैं।
इसी तरह सम्बद्ध अर्थका ज्ञान करानेके कारण शब्द अनुमान नहीं हो सकता; क्योंकि प्रत्यक्ष भी सम्बद्ध अर्थका हो ज्ञान कराता है, अत: वह भी अनुमान हो जायेगा। शायद कहा जाये कि यद्यपि प्रत्यक्ष भी सम्बद्ध अर्थका ही ज्ञान कराता है, किन्तु उसकी सामग्री अनुमानसे भिन्न है अतः वह अनुमानसे जुदा ही प्रमाण है । तो फिर शब्द अनुमानसे भिन्न क्यों नहीं है; क्योंकि शब्दप्रमाणकी सामग्री
१. प्रश० कन्द०, पृ० २१५ । २. न्या० कु. च०, ५३२-५३६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org