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परोक्षप्रमाण
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आगमिक श्रुतकी चर्चा करने से पूर्व हम दार्शनिक आगम प्रमाणकी ओर आते हैं । जैन आगम या श्रुत प्रमाण एक तरह से दर्शनान्तरोंके शाब्दप्रमाणका ही स्थानापन्न है यद्यपि दोनोंमें अन्तर भी है जो आगे स्पष्ट किया जायेगा, फिर भी शाब्दप्रमाणको तरह आगम या श्रुतमें भी शब्दकी मुख्यता है; क्योंकि श्रुतका अर्थ होता है 'सुना हुआ' अर्थात् सुनकर जो ज्ञान होता है वह श्रुतज्ञान है । दूसरे शब्दों में शब्द के निमित्तसे जो ज्ञान होता है, वह श्रुतज्ञान है । शाब्दप्रमाणका भी लगभग ऐसा ही आशय है अतः आगम या श्रुतप्रमाणमें शब्दकी मुख्यता होनेसे शब्द और शब्दसे होनेवाले ज्ञानके सम्बन्धमें जो विवाद हैं उनकी चर्चा प्रथम की जाती है । सबसे प्रथम तो वे तार्किक आते हैं जो शाब्दप्रमाणको नहीं मानते । वैशेषिक तो अनुमान प्रमाण में उसका अन्तर्भाव करता है । बौद्धों का कहना है कि शब्द प्रमाण ही नहीं है; क्योंकि शब्दका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । तथा शब्दका अर्थ विधिरूप न होकर अन्यापोह रूप है । मीमांसक शब्द और अर्थका नित्य सम्बन्ध मानता है तथा शब्दको भी नित्य मानता है । इसीसे वह वेदको अनादि अतएव अपौरुषेय मानता है । तथा शब्दका अर्थ सामान्यमात्र मानता है । अर्थात् गौशब्द गोव्यक्तिको न कहकर गोत्व सामान्यको कहता है । वैयाकरणोंका कहना है कि वर्णध्वनि क्षणिक है । अतः उससे अर्थका बोध नहीं हो सकता । इसलिए वे एक स्फोट नामका नित्य तत्त्व मानते हैं । उसके अनुसार वर्णध्वनिसे स्फोटको अभिव्यक्ति होती है और उससे अर्थका बोध होता है । वैयाकरणोंका यह भी मत है कि संस्कृत शब्दों में ही अर्थका बोध कराने की शक्ति है, पाली, प्राकृत आदि देशभाषाओंके शब्दोंमें वह शक्ति नहीं है । किन्तु जैनदर्शन उक्त सभी मान्यताओंका विरोधी है । अत: जैन नैयायिकोंने उक्त सभी मतोंकी समीक्षा को है । चूंकि श्रुत या आगमप्रमाणका मूल शब्द है अतः शब्दसम्बन्धी उक्त मान्यताओंकी समीक्षा आगे की जाती है । उसके बाद श्रुतप्रमाणका विवेचन किया जायेगा ।
वैशेषिकोंका पूर्वपक्ष - वैशेषिक और बौद्ध श्रुत अथवा शब्दप्रमाणको नहीं मानते । वैशेषिकों का कहना है कि शब्दप्रमाण अनुमान प्रमाणसे भिन्न नहीं है; क्योंकि दोनोंका विषय एक है तथा दोनों एक ही सामग्री से उत्पन्न होते हैं । इसका विशेष इस प्रकार है--शब्द और अनुमान दोनों ही सामान्यग्राही हैं । तथा दोनों ही सम्बद्ध- अर्थका ज्ञान कराते हैं । शायद कहा जाये कि शब्द असम्बद्ध अर्थको कहता है, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं हैं; क्योंकि ऐसा होनेसे बड़ी
१. प्रश० भा०, पृ० ५७६ । प्रश० व्योम०, पृ० ५७७ । प्रश० कन्द०, पृ० २१४ ।
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