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________________ २३२ जैन न्याय बौद्ध-निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे जाने हुए अर्थको हो सविकल्पक व्यवस्था करता है ? जैन-तो पक्षके द्वारा प्रतिपादित अर्थको ही हेतु कहता है और हेतुके द्वारा प्रतिपादित अर्थका समर्थन करता है ऐसा भी क्यों नहीं मान लेते ? हेतुकी अपेक्षा लेकर अर्थका कथन करना ही पक्षका स्वरूप है। 'पच्' धातुसे पक्ष शब्द बना है। अतः हेतुके द्वारा सुकुमार बुद्धि मनुष्योंके लिए जो अर्थको व्यक्त करता है वह पक्ष है। यदि पक्षको नहीं माना जायेगा तो सपक्ष और विपक्षकी व्यवस्था कैसे बनेगी; क्योंकि सपक्ष और विपक्षकी व्यवस्था पक्षपूर्वक ही होती है। और सपक्ष तथा विपक्ष के अभावमें हेतुका त्रैरूप्य नहीं बन सकता। अतः अनुमान प्रमाणका ही उच्छेद हो जायेगा। यदि प्रतिज्ञाका प्रयोग अनुचित है तो शास्त्र वगैरहमें भी उसका प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए । किन्तु शास्त्रमें प्रतिज्ञाका प्रयोग देखा जाता है। ___ बौद्ध--शास्त्रकार दूसरोंका कल्याण करने के लिए शास्त्र रचते हैं, अतः वे अपने पाठकोंका ध्यान रखते हैं । इसलिए शास्त्र आदिमें प्रतिज्ञाका प्रयोग करना सयुक्तिक है। जैन-तो वादमें भी प्रतिज्ञाका प्रयोग होना चाहिए; क्योंकि वादमें भी वाद करनेवाले दूसरोंका उपकार करनेके लिए ही प्रवृत्त होते हैं । अतः हेतुकी तरह पक्षका प्रयोग भी आवश्यक है। अनुमानके भेद 'अनुमानके दो भेद हैं-स्वार्थानुमान और परार्थानुमान । परोपदेशके बिना स्वयं ही जो साधनसे साध्यका ज्ञान होता है उसे स्वार्थानुमान कहते हैं और परोपदेशसे (दूसरेके वचनोंसे ) जो साधनसे साध्यका ज्ञान होता है वह परार्थानुमान है। आगम या श्रुत प्रमाण परोक्ष प्रमाणका अन्तिम भेद आगम प्रमाण है । जैन आगमिक परम्परामें इसका प्राचीन नाम श्रुत है । जैसे जैन आगमिक परम्पराका मतिज्ञान जैन तार्किक परम्परामें सांव्यवहारिक प्रत्यक्षके नामसे अभिहित हुआ, वैसे ही श्रुत भी आगमके नामसे अभिहित हुआ । १. 'तदनुमानं द्वधा ॥५२॥ स्वार्थपरार्थभेदात्' ॥५३-परी० मु० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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