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________________ परोक्षप्रमाण २३१ हो जाती है, इसलिए यदि प्रतिज्ञाके प्रयोगको आप व्यर्थ समझते हैं तो हेतुका प्रयोग भी व्यर्थ है; क्योंकि तीव्रबुद्धि मनुष्यको किसी विश्वस्त मनुष्य के मुखसे 'वहां अग्नि है' इत्यादि प्रतिज्ञाको सुनकर ही प्रकृत अर्थकी प्रतिपत्ति हो जाती है । उक्त कथन से चोथा विकल्प भी खण्डित हो जाता है; क्योंकि हेतुके प्रयोगकी सहायता से ही प्रतिज्ञाका प्रयोग कार्यकारी है ऐसा कोई नियम नहीं है । क्योंकि कभी-कभी हेतुके प्रयोगके बिना ही केवल पक्षका हो विशेष प्रतिपत्ति हो जाती है । प्रयोग करने से श्रोताको यदि पक्षका कथन न किया जायेगा तो हेतुमें अनैकान्तिक आदि दोष भी हो सकते हैं; क्योंकि पक्षके प्रयोगके बिना हेतुके गुण-दोषोंका वास्तविक विचार नहीं किया जा सकता। जैसे यदि कोई धनुर्धर लक्ष्य-निर्देशके बिना बाण छोड़े तो दर्शकों को उसका गुण भी दोष और दोष भी गुण प्रतीत होता है । किन्तु यदि वह लक्ष्यका निर्देश कर दे कि मैं अमुक वस्तुका लक्ष्य करके बाण छोड़ता हूँ तो उसका गुण और दोष ज्ञात हो जाता है कि यह धनुर्धर लक्ष्यवेधमें प्रवीण है अथवा नहीं। इसी तरह पक्षका निर्देश न करनेपर व्यामोहवश सच्चे हेतुमें भी यह आशंका उत्पन्न होनेसे कि यह हेतु साध्य में ही रहता है अथवा साध्यके अभाव में भी रहता है, अनैकान्तिक दोष आता है, तथा 'यह हेतु विपक्षमें ही रहता होगा' ऐसी आशंका होनेसे 'विरुद्धता' नामक दोष आता है किन्तु पक्षका निर्देश कर देनेपर हेतुके गुण और दोषकी प्रतिपत्ति ठीक-ठीक हो जाती है अतः दोषको आशंका नहीं रहती । बौद्धका यह कहना कि यदि केवल पक्षसे ही साध्यका प्रतिपादन हो जाता है तो हेतुका प्रयोग व्यर्थ है, ठीक नहीं है, क्योंकि कोई भी कारण अकेला कार्य नहीं कर सकता । क्या अकेला बीज अंकुरको उत्पन्न कर सकता है ? तथा यदि अकेला ही बीज अंकुरको उत्पन्न करनेमें समर्थ हो तो अन्य सहायक व्यर्थ नहीं हो जाते । यदि ऐसा माना जायेगा तो अकेले हेतुके साध्यको सिद्ध करने में समर्थ होनेपर भी बौद्ध जी हेतु प्रयोगके बाद उसका समर्थन करते हैं, वह भी व्यर्थ ठहरेगा । बौद्ध साध्यकी सिद्धिमें पक्ष हेतुकी अपेक्षा करता है, अतः वह साध्यकी सिद्धिमें कारण नहीं है । जैन-ती बौद्धोंके द्वारा कल्पित निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अर्थको सिद्धिमें सविकल्पक प्रत्यक्षकी अपेक्षा करता है अतः निर्विकल्पक प्रत्यक्षको भी अर्थको सिद्धिमें कारण नहीं मानना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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