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जैन न्याय
कहना है कि पक्षका प्रयोग करना निष्प्रयोजन है। केवल हेतुके प्रयोग करनेसे ही गम्यमान पक्षमें साध्यका बोध स्वयं हो जाता है। शायद कोई कहें कि पक्षका प्रयोग करनेसे साध्यको प्रतिपत्ति होती है अतः पक्षका प्रयोग निष्प्रयोजन नहीं है। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि पक्षके कहनेसे साध्यको प्रतिपत्ति सम्भव नहीं है। यदि है तो केवल पक्षके कहनेसे ही साध्य अर्थका बोध हो जाता है अथवा हेतुसहित पक्षके कहनेसे साध्यका बोध होता है। यदि केवल पक्षके कहनेसे साध्य अर्थका बोध होता है तो हेतुका कहना व्यर्थ हो जायेगा; क्योंकि प्रतिज्ञाके प्रयोग मात्रसे ही साध्य अर्थको प्रतिपत्ति हो जाती है। यदि हेतुसहित पक्षके कहनेसे साध्य अर्थको प्रतिपत्ति होती है तो हेतुसे ही साध्य अर्थको प्रतिपत्ति माननी चाहिए अतः प्रतिज्ञाका प्रयोग व्यर्थ है ।
उत्तरपक्ष-जैनोंका' कहना है कि बौद्ध लोग पक्षके प्रयोगको क्यों अना. वश्यक मानते हैं क्या वह साध्यकी सिद्धिमें रुकावट डालता है ? या प्रकरणसे ही पक्षके प्रयोगकी सिद्धि हो जाती है ? अथवा वह प्रयोजनका साधक नहीं है, अथवा हेतुके प्रयोगकी सहायतासे प्रयोजनका साधक है, इसलिए अनावश्यक है ? पहला विकल्प ठीक नहीं है, क्योंकि जब वादो सम्यक् साधनके द्वारा स्वपक्षकी सिद्धि करता है तो पक्षका प्रयोग साध्यकी सिद्धि में रुकावट नहीं डाल सकता। दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं है; क्योंकि प्रकरणसे जैसे पक्षके प्रयोगका ज्ञान स्वयं हो जाता है, वैसे ही हेतु वगैरहका ज्ञान भी स्वयं ही हो जाता है। अतः अनुमानमें हेतुका भी प्रयोग नहीं करना चाहिए । शब्दको अनित्य सिद्ध करते समय 'कृतकत्व' आदि हेतु और घट आदि दृष्टान्त क्या प्रकरणसे स्वयं ज्ञात नहीं हो जाते ? फिर भी यदि हेतुका प्रयोग किया जाता है तो पक्ष ने क्या अपराध किया है जो उसका प्रयोग नहीं करते ?
'पक्षका प्रयोग प्रयोजनका साधक नहीं है' यह कथन भी असिद्ध है; क्योंकि पक्षका प्रयोग करनेसे सुनने-समझनेवालेको विशेष बोध होता है और यही पक्षके प्रयोगका प्रयोजन है। कोई श्रोता मन्दबुद्धि होता है और कोई तीव्र बुद्धि होता है । जो मन्द बुद्धि होता है, प्रतिज्ञाके प्रयोगके बिना उसे प्रकृत अर्थका विशेष ज्ञान नहीं होता। तथा नैयायिकके मतानुसार तो तीव्रबुद्धिके लिए भी अनुमानके पांचों अवयवोंका प्रयोग जरूरी है, पाँचों अवयवोंका प्रयोग न किये जानेपर नैयायिकने निग्रह स्थान नामक दोष माना है। तीवबुद्धि मनुष्यको प्रतिज्ञाका प्रयोग किये बिना भी हेतुका प्रयोग करनेसे ही प्रकृत अर्थकी प्रतीति
१. न्या० कु० च०, पृ० ४३६ ।
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