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जैन न्याय
.. स्फोट आदि कार्यको देखकर उसके कारणको सिद्धि अर्थापत्तिसे हो नहीं होती, अनुमानसे भी होती है। यथा-स्फोट आदि कारणपूर्वक होते हैं। क्योंकि कार्य हैं। जो कार्य होता है वह कारणपूर्वक ही होता है, जैसे धूम वगैरह । चूंकि स्फोट आदि कार्य हैं अतः कारणपूर्वक होने चाहिए।
उक्त कथनसे अनुमान और उपमानपूर्वक अर्थापत्तिका भी निषेध समझना चाहिए, क्योंकि उनमें भी प्रत्यक्षपूर्वक अर्थापत्तिमें दिये गये दोष आते हैं। शब्दको नित्य सिद्ध करने में जो अर्थापत्तिपूर्वक अर्थापत्ति बतलायी है वह भी ठीक नहीं है। शब्द अनित्य होते हुए भी वाचक हो सकता है इसका विचार श्रुतज्ञानके प्रकरणमें किया जायेगा।
श्रुत अर्थापत्तिका जो उदाहरण दिया है कि 'मोटा देवदत्त दिनमें नहीं खाता' इत्यादि, वह भी अनुमान ही है; क्योंकि उसमें कार्यसे कारणका ज्ञान किया गया है। रसायन आदिका सेवन किये बिना भी स्वयं अपने में तथा दूसरोंमें पाया जानेवाला मुटापा भोजनका कार्य है यह जानकर, जब वह यह सुनता है कि देवदत्त दिनमें भोजन नहीं करता फिर भी मोटा बना हुआ है तो उसके आधारपर वह निश्चय करता है कि देवदत्त रातमें खाता है; क्योंकि रसायन वगैरहका उपयोग न करते हुए भी तथा दिनमें न खाते हुए भी मोटा है। ___इसी तरह जो अभावपूर्वक अर्थापत्ति कही है, वह भी अनुमान ही है क्योंकि 'घरमें नहीं है' इस हेतुसे जीवित चैत्रका बाहर होना सिद्ध होता है।
मीमांसक-अनुमानमें गम्य ( साध्य जो जाना जाये ) के बिना गमक ( साधन, जिसके द्वारा जाना जाये ) नहीं होता, जैसे अग्निके बिना धूम नहीं होता। किन्तु अपत्तिमें गमकके बिना गम्य नहीं होता। जैसे चैत्रका बाहर रहना गम्य है, वह गम्य जीवित होते हुए घरमें अभावके बिना नहीं बनता। अतः अर्थापत्ति में अनुमानसे विपरीतता पायी जाती है। इसलिए अर्थापत्ति अनुमानसे भिन्न प्रमाण है।
जैन-यह भी ठीक नहीं है। साध्यके अविनाभावी हेतुसे साध्यके ज्ञानको अनुमान कहते हैं । यह अनुमानका लक्षण अर्थापत्ति में भी पाया जाता है। अर्थापत्तिके उत्थापक अर्थका साध्यके साथ अविनाभाव होता है। अतः वह अविनाभाव, जिसे अन्यथानुपपत्ति भी कहते हैं, दोनोंमें पाया जाता है, भले ही वह गमकका विशेषण हो, अथवा गम्यका विशेषण हो, केवल इतनेसे अर्थापत्ति और अनुमानमें भेद नहीं हो सकता है, अन्यथा पक्षधर्मत्वरहित अर्थापत्तिसे पक्षधर्मत्वसहित अर्थापत्तिको भी एक जुदा प्रमाण मानना पड़ेगा। तथा अर्थापत्तिमें अविनाभाव
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