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परोक्षप्रमाण
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यदि अर्थापत्तिका उत्थापक अर्थ अपने साध्यके साथ सम्बद्ध रूपसे पहले ही जान लिया जाता है तो साध्यधर्मी में जाना जाता है अथवा दृष्टान्तधर्मो में ? प्रथम विकल्पमें अर्थापत्ति व्यर्थ हो जाती है, क्योंकि उसका साध्य तो पहले से ही सिद्ध है । दूसरा विकल्प भी ठीक नहीं है; क्योंकि मीमांसक अर्थापत्तिके उत्थापक अर्थके सम्बन्धका ज्ञान दृष्टान्तमें होना स्वीकार नहीं करते । दूसरे, अर्थापत्तिके उत्थापक अर्थका अपने साध्यके साथ सम्बन्धका ज्ञान यदि दृष्टान्त में होता है तो बार-बार दर्शन से होता है, अथवा विपक्षमें अनुपलम्भसे होता है अथवा दूसरी अर्थापत्ति से होता है ? बार-बार दर्शनसे हो नहीं सकता; क्योंकि अतीन्द्रिय शक्तिका बार-बार दर्शन असम्भव है । विपक्ष में अनुपलम्भसे भी नहीं हो सकता; क्योंकि विपक्ष में अनुपलम्भ भी उपलब्धियोग्य पदार्थोंमें ही सम्बन्धका ज्ञान करा सकता है । दूसरी अर्थापत्ति भी प्रथम अर्थापत्तिके उत्थापक अर्थका अपने साध्यके साथ सम्बन्धका ज्ञान नहीं हो सकता; क्योंकि अनवस्था दोष आता है ।
मीमांसक फिर आप साध्य-साधन के सम्बन्धका ज्ञान कैसे करते हैं ?
जैन - तर्क नामके प्रमाणसे ।
मीमांसक -- यदि हम भी उसे मान लें तो क्या दोष है ?
जैन - आपकी प्रमाणसंख्या बढ़ जायेगी । तथा आपके यहाँ जो यह लिखा है - 'प्रत्यक्ष से सम्बन्धको जाननेपर ही अनुमानकी प्रवृत्ति होती है' उसके विरुद्ध जायेगा |
वास्तव में सर्वत्र अविनाभाव सम्बन्धकी प्रतीति तर्क प्रमाणसे ही होती है । तर्कके अगोचर कुछ भी नहीं है, जिससे शक्तिके अतीन्द्रिय होनेके कारण किसी हेतुके साथ उसके सम्बन्धकी प्रतिपत्ति न होनेसे अनुमान प्रमाणसे शक्तिको न जाना जा सकता हो ।
प्रत्यक्षपूर्वक अर्थापत्तिका जो स्वरूप आपने कहा है कि प्रत्यक्षसे अग्निके दाहरूप कार्यको जानकर उसकी अन्यथानुपपत्तिसे अग्निमें दाहकत्व शक्तिकी कल्पना करना प्रत्यक्षपूर्वक अर्थापत्ति है । इसमें अनुपपत्तिसे आपका क्या मतलब है ? दाहकत्व शक्तिके बिना स्फोट ( फफोला ) आदिका न होना, यदि अनुपपत्ति है ? तो 'दाहक शक्तिके बिना स्फोट आदि कार्य नहीं हो सकते' यह व्यतिरेकका ही कथन हुआ । और यह व्यतिरेक 'दाहक शक्ति के होनेपर स्फोट आदि कार्य होते हैं' इस अन्वयको प्रकट करता है । तथा अन्वय और व्यतिरेक हेतुके ही धर्म हैं । ऐसी स्थिति में अर्थापत्ति अनुमानसे भिन्न कैसे हो सकती है ?
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