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परोक्षप्रमाण
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का कहना है कि हेतुके पाँच भेद हैं- कारण, कार्य, संयोगी, समवायी और ये पांच हेतु ही अनुमानके अंग हैं, इन्हीं में अविनाभाव नियम पाया जाता है । पाँचों हेतुओंका उदाहरण इस प्रकार है
विरोधी ।
१. कारण से कार्यका अनुमान - जैसे जलते हुए ईंधनको देखकर भस्म होनेका अनुमान करना — ईंधनका जलना राखका कारण है । २. कार्यसे कारणका अनुमान - जैसे नदी में बाढ़ देखकर ऊपर वर्षा होनेका अनुमान करना । नदीमें बाढ़ आनेका कारण वर्षा होना है । ३. संयोगीके दर्शनसे संयोगीका अनुमान —— जैसे धूमके देखनेसे वह्निका अनुमान करना । यहाँ धूम अग्निका संयोगी है । ४. समवायीके दर्शन से समवायीका अनुमान - जैसे शब्दसे आकाशका अनुमान करना । यहाँ शब्दगुण समवाय सम्बन्धसे आकाश में रहता है । अथवा एक अर्थ में समवाय सम्बन्धसे रहनेवाले एक गुणके दर्शन से उसी अर्थ में समवाय सम्बन्धसे रहनेवाले दूसरे गुणका अनुमान - जैसे रूपसे रसका अनुमान करना | ५. विरोधीके देखनेसे दूसरे विरोधीका अनुमान - जैसे नेवलेके बाल उठे हुए देखकर पास में हो सर्प होनेका अनुमान करना । ये पाँच हेतु गमक होते हैं ।
उत्तरपक्ष- -जैनोंका कहना है कि नैयायिकों का यह कहना कि पाँच हेतु ही अनुमानके अंग हैं, ठीक नहीं है, क्योंकि उन पाँचोंके अतिरिक्त, कृत्तिकोदय आदि हेतुओंको अनुमानका अंग ऊपर बतलाया ही है । अविनाभाव नियमके होनेसे ही हेतु अनुमानका अंग होता है, न कि कारण आदि होनेसे । कारणादि रूपता तो सब हेतुओंमें नहीं पायी जाती, जैसे कृत्तिकोदय आदि हेतुओं में कारण आदि रूपता नहीं है । किन्तु अविनाभाव नियम समस्त हेतुओं में पाया जाता है और जो हेत्वाभास है, उनमें नहीं पाया जाता । अतः अविनाभाव नियमके होनेसे ही हेतुको अपने साध्यका गमक मानना चाहिए । अविनाभाव के बिना कोई भी हेतु अपने साध्यका साधक नहीं देखा जाता । अविनाभाव के होनेपर ही सर्वत्र हेतुओं में गमकता देखी जाती है | अतः नैयायिकका उक्त मन्तव्य भी उचित नहीं है ।
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"सांख्यसम्मत हेतुके भेदोंका निराकरण - इसी तरह सांख्यहेतुके सात भेद मानते है - मात्रा, मात्रिक, कार्यविरोधी, सहचारी, स्वस्वामी और बध्यघातसंयोगी । १. मात्रामात्रिक अनुमान - जैसे चक्षुके ज्ञानका अनुमान करना । २. कार्य से कारणका अनुमान - जैसे बिजलीको क्षणिक देखकर उसके कारणका अनुमान करना । ३. प्रकृतिविरोधीके दर्शनसे उसके विरोधीका अनुमान - जैसे, बादल नहीं बरसेगा क्योंकि हवा प्रतिकूल बहती है ।
१ न्या० कु० च०, पृ० ४६२ ।
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