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जैन न्याय जैन-ऐसा कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि इस प्रकारका व्यवहार नहीं पाया जाता। अर्थात् रसके चखनेपर व्यवहारी मनुष्य उसकी सामग्रीका अनुमान नहीं करता अन्यथा वर्तमान रूप आदिको प्रतीति नहीं हो सकेगी। और ऐसी स्थितिमें 'इस आम्रका रूप अमुक प्रकारका है; क्योंकि इसमें अमुक प्रकारका रस पाया जाता है' इस प्रकारका अनुमान तथा उस प्रकारके रूपके इच्छुक मनुष्यको उसमें प्रवृत्ति नहीं होगी। इसके सिवा यदि आप (बौद्ध) सामग्रीसे रूपका अनुमान मानते हैं तो सामग्री कारण हुई और रूप उसका कार्य हुआ। अतः कारणसे कार्यका अनुमान माननेपर, बौद्धोंने हेतुके जो दो ही भेद माने हैंस्वभाव हेतु और कार्य हेतु, उसमें बाधा आती है, क्योंकि इस तरह एक तीसरा कारण हेतु भी मानना पड़ेगा। इससे सिद्ध हुआ कि वृक्ष आदि छाया आदिके न तो स्वभाव ही हैं और न कार्य ही हैं, फिर भी उनसे छाया आदिका अनुमान होता है। यदि कहा जाये कि वृक्ष आदिसे छाया आदिके अनुमान करने में व्यभिचार देखा जाता है तो भी ठीक नहीं है। क्योंकि वृक्ष आदिसे छाया आदिका अनुमान करनेपर बादमें छाया आदि प्रत्यक्षसे सत्य प्रतीत होती है। जलमें चन्द्रमाका प्रतिबिम्ब देखकर उससे आकाशमें चन्द्रमाके होनेका अनुमान किया जाता है। किन्तु आकाशमें स्थित चन्द्रमा न तो जलमें प्रतिबिम्बित चन्द्रमाका स्वभाव है और न कार्य है। फिर भो जल चन्द्र से चन्द्रमाका निर्दोष ज्ञान होता है। अतः स्वभाव और कार्य के सिवा एक कारण हेतुको भी मानना चाहिए। 'एक मुहुर्तमें रोहिणी नक्षत्रका उदय होगा; क्योंकि कृत्तिका नक्षत्रका उदय हो चुका' इस अनुमानमें 'कृत्तिका नक्षत्रका उदय हो चुका' यह हेतु है और 'रोहिणी नक्षत्रका उदय होगा' यह साध्य है। किन्तु कृत्तिकाका उदयरूप हेतु रोहिणीके उदयरूप साध्यका न तो कार्य है और न स्वभाव है, परन्तु दोनोंके उदयमें अविनाभाव नियम है इसलिए लोग आकाशमें कृत्तिकाका उदय देखकर भविष्यमै रोहिणी नक्षत्रके उदय होनेका अनुमान करते हैं। इस तरहके और भी उदाहरण दिये जा सकते है-जैसे, कल प्रातः सूर्यका उदय होगा, क्योंकि आज सूर्यका उदय हुआ है। तथा 'कल ग्रहण लगेगा; क्योंकि गणित करनेसे अमुक प्रकारके अंक आते हैं।' ये सब पूर्वचर हेतुके उदाहरण हैं अर्थात् इनमें साध्यसे हेतु पूर्वचारी होता है। अत: बौद्धोंने जो हेतुके दो ही प्रकार माने हैं वे ठीक नहीं हैं, स्वभाव हेतु और कार्य हेतुके सिवा कारण हेतु, पूर्वचर आदि हेतु भी देखे पाये जाते हैं ।
हेतुके पाँच भेद माननेवाले नैयायिकका पूर्वपक्ष-नैयायिक-वैशेषिक१. न्या० कु० चं०, पृ० ४६० ।
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