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________________ परोक्षप्रमाण २२१ तथा यह कहना कि प्रत्यक्ष और अनुपलम्भसे अविनाभावकी प्रतीति होती है, उचित नहीं है, क्योंकि आपका प्रत्यक्ष निर्विकल्प होनेसे व्याप्तिको ग्रहण नहीं कर सकता और अनुपलम्भ पदार्थान्तरके उपलम्भ स्वरूप होनेसे व्याप्तिको ग्रहण नहीं कर सकता। 'अमुक वस्तु अमुक वस्तु के होनेपर ही होती है, और नहीं होनेपर नहीं होती' इतना विचार, निर्विकल्पक प्रत्यक्षमें नहीं हो सकता; क्योंकि वह विचारक नहीं है। निर्विकल्पकसे उत्पन्न होनेवाला सविकल्पक प्रत्यक्ष भी व्याप्तिको ग्रहण नहीं कर सकता, क्योंकि बौद्ध उसे प्रमाण नहीं मानते । _ 'स्वभाव हेतुकी व्याप्ति विपक्ष में बाधक प्रमाणके बलसे जानी जाती है' यह कथन भी ठीक नहीं है। 'सब क्षणिक हैं, क्योंकि सत् हैं' इस अनुमानमें 'सत् हैं' यह स्वभावहेतु है। तथा वहाँपर विपक्ष नित्य है । बौद्धोंके कथनानुसार 'सत्' हेतु विपक्ष नित्यमें नहीं रहता; क्योंकि विपक्ष में बाधक प्रमाण यह अनुमान है'नित्यमें अर्थक्रिया नहीं होती, क्योंकि उसमें न तो क्रम पाया जाता है और न 'योगपद्य' पाया जाता है। जिसकी व्याप्ति सिद्ध होती है वही अनुमान अपने साध्यको सिद्धि करता है। अतः अब प्रश्न यह होता है कि विपक्षमें बाधक जो अनुमान है उस अनुमानकी व्याप्ति दूसरे अनुमानसे सिद्ध होती है या उसी अनुमानसे सिद्ध है ? यदि एक अनुमानकी व्याप्ति दूसरे अनुमानसे सिद्ध होती है तो दूसरे अनुमानकी व्याप्ति तीसरे अनुमानसे सिद्ध होगी। इस तरह अनवस्था दोष आता है। और यदि वह अनुमान अपनी व्याप्तिको स्वयं ही सिद्ध करता है तो अन्योन्याश्रय दोष आता है; क्योंकि जब व्याप्ति सिद्ध हो तो अनुमान बने और जब अनुमान बने तो ज्याप्ति सिद्ध हो । अतः यदि बौद्ध अनुमान प्रमाणको मानते हैं तो उन्हें व्याप्तिके ग्राहक तर्कको एक जुदा प्रमाण मानना चाहिए; क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमानसे व्याप्तिका ग्रहण नहीं हो सकता। तथा तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बन्धके अभावमें भी अविनाभावके बलसे ही हेतु अपने साध्यको सिद्ध करने में समर्थ होता है। जैसे-वहाँ छाया है। क्योंकि वृक्ष है' अथवा अंधेरेमें आम खानेपर उसके रसके स्वादसे जो आमके रूपका अनुमान किया जाता है, इन दोनों अनुमानोंमें, 'वृक्ष' और 'रस' हेतु क्रमशः साध्य छाया और रूपका न तो स्वभाव है, क्योंकि रस और छायामें तथा रूप और रसमें भेद पाया जाता है, और न कार्य है; क्योंकि दोनों एक साथ रहते हैं। बौद्ध-रसके चखनेपर तथा वृक्षके देखने पर उसकी सामग्रीका अनुमान किया जाता है और सामग्रीसे रूप और छायाका अनुमान किया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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