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जैन न्याय
तादात्म्य कैसे कहा जायेगा ? और यदि साधनको प्रतीतिके साथ ही साध्यकी प्रतीति हो जाती है तो अनुमानको विफलता सिद्ध है।
यदि कहा जाये कि विपरीत समारोपको दूर करनेके लिए अनुमानकी आवक्यकता है, तो उसमें यह प्रश्न पैदा होता है कि हेतुका स्वरूप जान लेने पर समारोप होता है या बिना जाने हो उसमें विपरीत समारोप होता है ? यदि हेतुका स्वरूप जान लिया तो फिर विपरीत समारोपको स्थान ही कहाँ रहा; क्योंकि यदि अन्धेरेमें खड़े ऊंचे पदार्थमें हाथ-पैर आदि दिखाई दे जायें तो उसे स्थाणु (ठूठ) कौन समझ सकता है? और यदि हेतुका स्वरूप नहीं जाना तो विपरीत समारोपका प्रश्न ही नहीं उठता; क्योंकि वस्तुको बिना जाने विपरीत ज्ञान नहीं होता। जब साध्य और साधनमें तादात्म्य है तो जैसे आम्रपनेको देखकर वृक्ष होनेका अनुमान करते हैं वैसे ही वृक्षपनसे आम्रत्वका अनुमान क्यों नहीं किया जाता । यदि कहा जाये कि आम्रत्व तो वृक्षत्वसे बंधा हुआ है; किन्तु वृक्षत्व आम्रत्वसे बँधा नहीं है। अर्थात् जिसमें आम्रत्व पाया जाता है उसमें वृक्षत्व अवश्य पाया जाता है किन्तु जो-जो वृक्ष होता है वह-वह आमका ही वृक्ष होता है ऐसो व्याप्ति नहीं है, तब तो तादात्म्य होनेसे हेतु साध्यका गमक नहीं होता, बल्कि अविनाभावसे हो हेतु साध्यका गमक होता है। अतः तादात्म्यसे अविनाभाव नियत नहीं है और न तदुत्पत्तिसे ही अविनाभाव नियत है। क्योंकि धूमका धर्म कालापन वगैरह भो अग्निसे ही उत्पन्न होता है, किन्तु उसका अग्निके साथ अधिनाभाव नहीं है। तथा अग्नि सामान्य और धूमसामान्यमें कार्यकारण भाव नहीं होता, किन्तु अग्निविशेष और धूमविशेषमें कार्यकारण भाव होता है। अतः रसोईघर में जिस अग्नि और धूममें कार्यकारण भाव जाना, उनमें तो गम्य-गमक भाव अर्थात् साध्य-साधन भाव नहीं है। और पर्वतपर पाये जाने वाले जिस धूम और अग्निमें गम्य-गमक भाव है, उनमें कार्यकारण भाव नहीं जाना । तथा कार्यकारण भावको जाने बिना पर्वतस्थ धूम ओर अग्निका अविनाभाव नहीं जाना जा सकता। और अगृहीत अविनाभाव अनुमानका अंग नहीं है। अब यदि अनुमान प्रयोगके काल में कार्यकारणके अविनाभावका ग्रहण मानते हैं तो हेतुकी प्रतीति होते ही साध्यकी प्रतीतिके हो जानेसे अनुमानको आवश्यकता हो क्या है ?
इसके सिवा जिनमें तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बन्ध हो उनमें ही यदि अविनाभाव नियम मानते हैं तो कृत्तिका नक्षत्र और रोहिणीनक्षत्रके उदयमें सभा चन्द्रोदय और समुद्र की वृद्धि में साध्य-साधनभाव कैसे बनेगा; क्योंकि इनमें
जो तारान्य है और न तदुत्पत्ति सम्बन्ध है ।
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