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परोक्षप्रमाण
व्याप्ति प्रतीत होती है। तथा स्वभावहेतुकी व्याप्ति विपक्षमें बाधक प्रमाणके होने. से प्रतीत होती है, जैसे सत्वकी क्षणिकत्वके साथ व्याप्तिकी प्रतीति होती है । इसका विशेष इस प्रकार है-सत्त्वका लक्षण अर्थक्रियाकारित्व है; अर्थात् जो कुछ काम करता है वह सत् है। अर्थक्रिया या तो क्रमसे होती है या युगपत् होतो है । अतः क्रमयोगपद्य व्यापक हैं और अर्थक्रिया व्याप्य है। किन्तु नित्य पदार्थ न तो क्रमसे अर्थक्रिया ( अपना कार्य ) कर सकता है, क्योंकि जब वह नित्य समर्थ है तो अपना काम उसे तुरन्त कर डालना चाहिए; और न वह सब काम एक साथ कर सकता है; क्योंकि यदि वह सब काम तुरन्त कर डालेगा तो फिर उसे करनेके लिए कुछ भी नहीं रहनेसे वह असत् हो जायेगा। इसलिए नित्यमें क्रम योगपद्यके न रहनेसे अर्थक्रिया भी नहीं रह सकती। और अर्थक्रियाके न रहनेसे नित्यपदार्थ असत् सिद्ध होता है। तथा नित्यपदार्थके असत् सिद्ध होनेसे यह निष्कर्ष निकलता है कि क्षणिक पदार्थ हो सत् है; क्योंकि नित्य और क्षणिकके सिवा कोई तीसरा प्रकार तो है नहीं, जो सत् हो सके ।
रहा अनुपलब्धि रूप हेतु, किन्तु अनुपलब्धिका अन्तर्भाव स्वभावानुपलब्धि हो जाता है और स्वभावानुपलब्धि स्वभावहेतु है तथा उसका तादात्म्य सम्बन्ध है। अतः उसके लिए किसी अन्य अविनाभाव नियमकी आवश्यकता नहीं है। ___ इस तरह अविनाभाव तादात्म्य और तदुत्पत्तिसे हो नियत है अतः हेतुके दो ही भेद हैं-स्वभावहेतु और कार्यहेतु । ऐसा बौद्धोंका मत है । ___ उत्तरपक्ष-जैनोंका कहना है कि 'अविनाभाव तादात्म्य और तदुत्पत्तिसे ही नियत है' इत्यादि कथन अविचारपूर्ण है; क्योंकि तादात्म्य अविनाभाव नियमका निमित्त नहीं होता। इसका कारण यह है कि सम्बन्ध उन्होंमें होता है जिनमें भेद नहीं होता है। किन्तु तादात्म्यके होते हुए भेद नहीं हो सकता और भेदके अभावमें सम्बन्ध नहीं हो सकता । तादात्म्यका अर्थ है-साध्यके साथ साधनको एकता। एकताके होते हुए भेद नहीं हो सकता और भेदके होते हुए एकता नहीं हो सकती। अतः वृक्षत्वमें और आम्र त्वमें तादात्म्य होनेसे आम्रत्वसे वृक्षत्वको प्रतीति कैसे हो सकती है ? तथा यदि साध्य और साधनमें तादात्म्य होनेसे साधन-साध्यका गमक होता है तो जिस समय हेतुका ग्रहण होता है उसी समय हेतुसे अभिन्न होनेके कारण साध्यको भी प्रतीति हो ही जायेगी तब अनुमानको आवश्यकता ही नहीं रहती; क्योंकि साधनका ग्रहण किये बिना उससे साध्यका ज्ञाहीं हो सकता और साधनको प्रतीति होनेपर भो यदि साध्यको प्रतीति नहीं हैई तो उन दोनोंमे
१. न्या० कु० च०, पृ० ४४६ ।
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