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जैन न्याय
हेतुके भेदोंके विषयमें बौद्धका पूर्व पक्ष-बौद्धों का कहना है कि अविनाभावके बलसे ही हेतु अपने साध्यको सिद्धि करने में समर्थ होता है, यह तो ठीक है, किन्तु अविनाभाव नियम उन्हीं में होता है, जिनमें या तो तादात्म्य सम्बन्ध होता है या तदुत्पत्ति सम्बन्ध होता है। अतः हेतुके दो हो भेद है-एक कार्य हेतु और एक स्वभाव हेतु । तादात्म्यसे स्वभावहेतुका अविनाभाव होता है; तदुत्पत्तिसे कार्यहेतुका अविनाभाव होता है। कार्य और स्वभावके सिवा अन्य कोई हेतु नहीं है। अनुपलब्धिका अन्तर्भाव भी स्वभाव हेतुमें ही हो जाता है; क्योंकि घट वगैरहका अभाव, घट आदिसे शून्य भूतल आदि स्वभावरूप हो है, अतः घटरहित भूतल आदि स्वभावकी उपलब्धि ही घटकी अनुपलब्धि है। आशय यह है कि पृथ्वीपर घड़ा होनेसे पृथ्वी और घड़ेका ग्रहण एक ज्ञानसे होता है किन्तु यदि प्रत्यक्षसे केवल पृथ्वी ही गोचर हो और घड़ा दिखाई न दे तो घड़ेका ग्रहण न होना ही उसके अभावका ग्रहण होना है, क्योंकि यदि जमीनपर घड़ा होता तो जमीनके साथ ही घड़ेका भी ग्रहण होना चाहिए था। अतः अभाव भावान्तर स्वरूप ही है। इसीसे अनुपलब्धिरूप हेतुका अन्तर्भाव भी स्वभाव हेतुमें हो जाने से हेतुके दो ही भेद है । तथा 'अविनाभावका ग्रहण तर्कज्ञानसे होता है' यह भी ठीक नहीं हैं; क्योंकि कार्यहेतुके अविनाभावकी प्रतीति प्रत्यक्ष और अनुपलम्भके पांच बार होनेसे हो जाती है। विशेष इस प्रकार है-पहले किसी स्थानपर अग्नि और धूम दोनोंको ही नहीं देखा। यह एक अनुपलम्भ हुआ । पीछे कहीं अग्निको देखा उसके बाद धूमको देखा। ये दो उपलम्भ हुए। फिर अग्निको नहीं देखा तो धूमको भी नहीं देखा। ये दो अनुपलम्भ हुए। इस तरह पाँच बार प्रत्यक्ष और अनुपलम्भके होनेसे एक ही व्यक्तिमें कार्यकारण भावका ज्ञान हो जाता है कि अग्निका कार्य धूम है। और जो उसका कार्य है वह अपने कारणसे नियत है। यदि कार्य अपने कारणसे नियत न हो तो कारणकी अपेक्षा न करनेसे कार्य या तो सदा सत् ही होगा या सदा असत् ही होगा। तथा, जो नियत होता है उसका कोई नियामक अवश्य होता है । नियामकके अभावमें स्वतन्त्र हो जानेसे कार्यके नित्य सत् होनेका अथवा नित्य असत् होनेका पुनः प्रसंग उपस्थित होगा। अत: यह निष्कर्ष निकला-जो एक बार भी जिससे उत्पन्न होता हआ देखा गया है वह उसीसे उत्पन्न होता है, अन्यसे उत्पन्न नहीं होता। यदि जो जिसका कारण नहीं है वह उससे भी उत्पन्न होने लगे तो सबसे सबकी उत्पत्ति होने लगेगी। इस तरह प्रत्यक्ष और अनुपलम्भसे कार्यहेतुकी सार्वदेशिक
१. न्या० कु० च०, पृ० ४४४ । ।
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