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________________ २१६ जैन न्याय बलवाले हों तो उनमें बाध्य-बाधकभाव नहीं हो सकता; क्योंकि जो समान बलवाले होते हैं उनमें बाध्य-बाधक भाव नहीं होता, जैसे समान बलशाली दो राजाओंमें। यदि पक्ष और प्रतिपक्ष अतुल्य बलवाले हैं तो उनके अतुल्य बल होनेका कारण क्या है--एकमें पक्षधर्मता वगैरहका होना और एकमें उनका न होना अथवा अनुमानबाधा ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि पक्षधर्मता आदि दोनों अनुमानोंमें पायी जाती है। जैसे, एकने कहा-'यह मनुष्य मूर्ख है; क्योंकि अमुकका पुत्र है। दूसरेने कहा-यह मनुष्य मूर्ख नहीं है; क्योंकि शास्त्रका व्याख्यान करता है ।' इन दोनों अनुमानोंमें पक्षधर्मता आदि पायी जाती है । दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है क्योंकि जब दोनों अनुमानोंमें पक्षधर्मता आदि पायी जाती है तो उनमें से एक बाधित और एक बाधक नहीं हो सकता, अन्यथा दोनोंमें से कोई भी बाध्य और कोई भी बाधक हो जायेगा तथा अन्योन्याश्रय नामका दोष भी आता है क्योंकि जब दोनों अनुमान अतुल्यबल सिद्ध हों तो अनुमानबाधा आये और जब अनुमानबाधा हो तो अतुल्यबलत्व सिद्ध हो। अतः हेतुका लक्षण अविनाभाव नियम निश्चय ही मानना चाहिए। ऊपरकी चर्चाका निष्कर्ष यह है कि जैनदर्शन में हेतुका एक रूप ही माना है-अविनाभाव नियम । उसका कहना है कि जब तीन अथवा पाँच रूपोंके नहीं होनेपर भी कुछ हेतु गमक हो सकते हैं तो अविनाभाव नियमको ही हेतुका लक्षण मानना चाहिए, तीन या पांच रूप तो अविनाभावका ही विस्तार है। - अविनामावके भेद-अविनाभाव नियमके दो भेद है-एक सहभाव नियम और एक क्रमभाव नियम । सहचारियोंमें और व्याप्य-व्यापकमें सहभाव नियम नामक अविनाभाव होता है। जैसे रूप और रस सहचारी हैं; क्योंकि रूप रसके बिना नहीं रहता और रस रूपके बिना नहीं रहता, दोनों साथ-ही-साथ रहते हैं अत: इन दोनोंमें सहभाव नामक अविनाभाव है । तथा वृक्षत्व और आम्रत्वमें-से वृक्षपन व्यापक है और आम्रपन व्याप्य है; क्योंकि वृक्षपन तो सभी प्रकारके वृक्षोंमें रहता है किन्तु आम्रपन केवल आमके वृक्षोंमें हो रहता है। ये दोनों भी सहचारी हैं; क्योंकि जिसमें आम्रपन रहता है उसमें वृक्षपन अवश्य रहता है। । पूर्वोत्तरचारियोंमें ( सदा आगे-पीछे रहनेवालोंमें ) और कार्य-कारणमें क्रमभाव नियम होता है । जैसे कृत्तिका नक्षत्रके पश्चात् ही रोहिणी नक्षत्रका उदय होता है । अतः ये दोनों पूर्वोत्तरचारी हैं। तथा धूम और अग्नि में से धम कार्य है और अग्नि कारण है । कारण पहले होता है और कार्य बादको होता है । अतः इनमें क्रमभाव नियम नामका अविनाभाव है। सारांश यह है कि जो साथ-साथ रहते हैं उनमें सहभाव नियम होता है और जो क्रमसे होते हैं उनमें क्रमभाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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