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परोक्षप्रमाण
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जो हेतु असिद्ध है, या विरुद्ध है, या अनैकान्तिक है उसका अपने साध्यके साथ अन्यथानुपपत्ति नियम नहीं होता। 'अन्यथा' अर्थात् साध्यके अभावमें हेतुकी 'अनुपपत्ति' अर्थात् अभावका नाम अन्यथानुपपत्ति है। निश्चित अन्यथानुपपत्ति ही हेतुका लक्षण है अतः बौद्धकल्पित त्रैरूप्य हेतुके लक्षण नहीं है। इसीसे आचार्य पात्रकेसरीने अपने 'त्रिलक्षणकदर्थन' नामक ग्रन्थमें उचित ही कहा था''जहाँ अन्यथानुपपत्ति है वहाँ त्रिरूपतासे क्या प्रयोजन है । और जहां अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहां त्रिरूपता होनेसे भी क्या प्रयोजन है।' अर्थात् उसका होना या नहीं होना दोनों समान हैं। __ हेतुके योगकल्पित पांचरूप्य लक्षणकी आलोचना-यौगोंने बौद्धोंके त्रैरूप्यकी तरह पांचरूप्यको हेतुका लक्षण माना है। किन्तु यह लक्षण भी ठीक नहीं है। हेतुके इन पांच लक्षणोंमें से पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व आदि तीन लक्षणोंका तो पहले ही खण्डन कर आये हैं शेष दो रहते है-एक अबाधित विषयत्व और एक असत्प्रतिपक्षत्व । किन्तु अन्यथानुपपत्ति अथवा साध्याविनाभाव नियमके बिना न तो हेतु अबाधित विषय होता है और न असत्प्रतिपक्ष होता है। 'अबाधित विषयका अर्थ है-हेतुका साध्य किसी प्रमाणसे बाधित न हो।' जैसे, अग्नि ठण्डी होती है, क्योंकि द्रव्य है, जैसे जल । इस अनुमानमें अग्निका ठण्डापन साध्य है, किन्तु यह साध्य प्रत्यक्ष प्रमाणसे बाधित है क्योंकि प्रत्यक्षसे अग्नि उष्ण सिद्ध है । अतः यह बाधित विषय है; क्योंकि 'जो-जो द्रव्य हो वह वह ठण्डा हो' ऐसा कोई अविनाभाव नियम नहीं है; द्रव्य ठण्डे भी होते हैं और गरम भी होते हैं। अतः अविनाभावके अभावके बिना कोई हेतु बाधितविषय नहीं हो सकता। बाधितविषय और अविनाभावका परस्परमें विरोध है। साध्यके सद्भावमें हो हेतुका पक्षमें रहना अविनाभाव है। और साध्यके अभावमें हेतुका रहना 'बाधितविषय' है। असत्प्रतिपक्षका अर्थ है-जिसका कोई प्रतिपक्ष न हो। जैसे किसीने कहा-यह जगत् किसी बुद्धिमान्का बनाया हआ है; क्योंकि कार्य है। दूसरेने कहा-यह जगत् किसीका बनाया हुआ नहीं है; क्योंकि उसका कोई कर्ता नहीं है । यह सत्प्रतिपक्ष है । अब यहाँ यह विचारणीय है कि असत्प्रतिपक्षतासे तुल्य बलवाले प्रतिपक्षका निषेध इष्ट है अथवा अतुल्य बलवाले प्रतिपक्षका निषेध इष्ट है ? यदि पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों समान १. 'अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण
किम् ।' इस ऐतिहासिक कारिकाका रोचक विवरण जाननेके लिए न्यायकुमुद
चन्द्र के प्रथम भागकी प्रस्तावनाका पृ० ७३ देखें। २. न्या० कु० च०, पृ० ४४२ ।
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