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________________ जैन न्याय भी अविनाभाव रूप नियमके होनेसे ही हेतु अपने साध्यकी सिद्धिमें समर्थ सिद्ध होता है । जैसे, 'रोहिणी नक्षत्रका उदय होगा, क्योंकि कृत्तिका नक्षत्रका उदय हो चुका है' इस अनुमान में पक्षधर्मता नहीं है; क्योंकि यहाँ रोहिणी नक्षत्र पक्ष है और उसका भविष्य में उदय होना साध्य है तथा 'कृत्तिकाका उदय' हेतु है । 'कृत्तिकाका उदय' हेतु रोहिणीपक्ष में नहीं रहता; क्योंकि कृत्तिका - का उदय कृत्तिकाका धर्म है न कि रोहिणीका । अतः यहाँ पक्षधर्मता सम्भव नहीं है, फिर भी वह हेतु साध्यकी सिद्धि करता है । २१४ - इस अनुमानको हम इस प्रकार कहेंगे - 'आकाश में शकट (रोहिणी) का उदय होगा; क्योंकि वह कृत्तिकाके उदयसे युक्त है' ऐसा कहने से इसमें पक्षधर्मता बन जाती है । बौद्ध — जैन- - इस तरह से तो सभी हेतु पक्षधर्मतावाले हो सकते हैं । और 'जगत्' को पक्ष बनाकर मकानको सफेद सिद्ध करनेके लिए, कोवेके कालेपनको भी हेतु बनाकर उसमें पक्षधर्मताकी कल्पना की जा सकती है । जैसे, यह जगत् सफेद मकानवाला है क्योंकि इसमें काले कौवे पाये जाते हैं । अथवा यह जगत् समुद्र में आगको लिये हुए है क्योंकि इसमें धुएँवाले रसोईघर हैं । अतः पक्षधर्मताके होनेसे ही हेतु अपने साध्यको सिद्ध करने में समर्थ नहीं होता । इसलिए पक्षधर्मता हेतुका लक्षण नहीं है । इसी तरह सपक्षसत्त्व भी हेतुका लक्षण नहीं है; जो सपक्ष में नहीं रहते, फिर भी साध्यको सिद्धि करनेमें अनित्य है; क्योंकि सुनाई देता है' 'सब जगत् क्षणिक है; क्योंकि सत् है ।' इन दोनों अनुमानों में कोई सपक्ष नहीं है; क्योंकि प्रथम में शब्दमात्रको पक्ष बनाया है, शब्दके सिवा अन्य कोई वस्तु ऐसी नहीं है जो सुनाई देती हो, अतः 'सुनाई देना' रूप हेतु सपक्ष में नहीं रहता । इसी तरह जब समस्त जगत्‌को पक्ष बना लिया तो कुछ शेष बचा ही नहीं जिसे सपक्ष बनाया जा सके । अतः 'सत्' हेतु भी सपक्ष में नहीं रहता । फिर भी ये दोनों हेतु गमक हैं-- अपने साध्यको सिद्ध करते हैं । शायद कहें कि 'ये दोनों हेतु विपक्ष में नहीं रहते अतः साध्यके साथ अविनाभाव नियमसे बद्ध होनेके कारण ही गमक होते हैं' तो उसीको हेतुका प्रधान लक्षण मानना चाहिए । अतः पक्षधर्मता और सपक्षसत्त्व हेतुके लक्षण नहीं हैं । किन्तु विपक्ष में हेतुके असत्त्वका निश्चय हो हेतुका मुख्य लक्षण है । उसे ही अन्यथानुपपत्ति कहते हैं । अन्यथानुपपत्ति नियमके होनेसे ही हेतुमें असिद्धता आदि दोष नहीं रहते । क्योंकि ऐसे बहुत-से हेतु हैं समर्थ हैं । जैसे, 'शब्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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