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परोक्षप्रमाण
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तालाब विपक्ष है । जहाँ साध्यको सिद्धि की जाती है उसे पक्ष कहते हैं । जैसे ऊपरके अनुमानमें पर्वतमें आग सिद्ध करना है अत: पर्वत पक्ष है । जहाँ साधनके सद्भावमें साध्यका सद्भाव दिखाया जाये उसे सपक्ष कहते हैं जैसे रसोईघर। और जहाँ साध्यके अभावमें साधनका भी अभाव दिखाया जाये, उसे विपक्ष कहते हैं जैसे तालाब । ऊपरके अनुमानमें धूमवत्त्व हेतु पर्वतरूपमें रहता है, सपक्ष रसोईघरमें भी रहता है किन्तु विपक्ष तालाबमें नहीं रहता। अतः वह निर्दोष हेतु है । हेतुके पक्ष में रहनेसे असिद्धता नामका दोष नहीं रहता, सपक्षमें रहनेसे विरुद्धता नामका दोष नहीं रहता और विपक्षमें नहीं रहनेसे अनैकान्तिक नामका दोष नहीं रहता। यदि हेतु पक्षमें न रहे तो असिद्धता दोष दूर नहीं हो सकता, यदि हेतु सपक्षमें न रहे तो विरुद्धता दोष दूर नहीं हो सकता और यदि हेतु विपक्ष में भी रहता हो तो अनेकान्तिक दोष दूर नहीं हो सकता । अतः त्रैरूण्य ही हेतु का लक्षण है।
उत्तरपक्ष-जनोंका कहना है कि हेतुका लक्षण पक्षधर्मत्व आदि त्रैरूप्य नहीं है; क्योकि त्रैरूप्य तो सदोष हेतुओंमें भी पाया जाता है । और जैसे अग्निका 'सत्त्व' लक्षण ठोक नहीं है; क्योंकि सत् तो प्रत्येक पदार्थ होता है। इसी तरह पक्षधर्मत्व आदि त्रैरूप्य हेत्वाभास ( सदोष हेतु ) में भी रह जाता है, अत: वह हेतुका लक्षण नहीं हो सकता। इसका विशेष इस प्रकार है
किसीने कहा-'मैत्रकी पत्नी के गर्भ में जो बालक है, वह काला है; क्योंकि वह मैत्रका पुत्र है, जैसे मैत्रके अन्य पुत्र ।' इस अनुमानमें वह 'मैत्रका पुत्र है' यह हेतु है । मैत्रका गर्भस्थ बालक पक्ष है; क्योंकि उसोको 'काला' सिद्ध करना है। उस गर्भस्थ बालक में 'मैत्रका पुत्रत्व' रूप हेतु रहता ही है; क्योंकि वह मैत्रका पुत्र है । सपक्ष हैं उसके अन्य भाई, चूंकि वे भी मैत्रके पुत्र है, अत: उनमें भी मैत्रतनयत्व हेतु रहता ही है। विपक्ष है मैत्रके सिवा किसी दूसरे व्यक्तिका गौरांग बालक । चूंकि वह मैत्रका पुत्र नहीं है इसलिए उसमें 'मैत्रपुत्रत्व' रूप हेतू नहीं रहता। इस तरह त्रैरूप्यके होते हुए भी यह हेतु सम्यक् हेतु नहीं है; क्योंकि जो-जो मैत्रका लड़का हो वह काला ही हो ऐसी कोई व्याप्ति नहीं है, वह गौरवर्ण भो हो सकता है ।
बौद्ध-हेतुका लक्षण केवल त्रैरूप्य नहीं है, किन्तु अविनाभावसे विशिष्ट त्रैरूप्य हो हेतुका लक्षण है। वह लक्षण 'मैत्रपुत्रत्व' रूप सदोष हेतुमें नहीं पाया जाता।
जैन-तब तो त्रैरूप्यको कल्पना व्यर्थ हो जाती है; क्योंकि त्रैरूप्यके बिना
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