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________________ २१२ जैन न्याय अनुमान प्रमाण साधनसे साध्यके ज्ञानको अनुमान प्रमाण कहते हैं । साधनको लिंग और साध्यको लिंगी भी कहते हैं । अतः ऐसा भी कह सकते हैं कि लिंगसे लिंगीके ज्ञानको अनुमान कहते हैं । लिंग अर्थात् चिह्न और लिंगी अर्थात् उस चिह्नवाला। जैसे धूमसे अग्निको जान लेना अनुमान है। यहाँ धूम साधन अथवा लिंग है और अग्नि साध्य अथवा लिंगी है। अग्निका चिह्न धूम है। कहीं धुआं उठता हुआ दिखाई दे तो ग्रामीण लोग तक धुएँको देखकर यह अनुमान कर लेते हैं कि वहाँ आग जल रही है। क्योंकि बिना आगके धुआं नहीं उठ सकता । अतः ऐसे किसी अविनाभावी चिह्नको देखकर उस चिह्नवालेको जान लेना अनुमान है । साधन अथवा लिंग ऐसा होना चाहिए जो साध्य अथवा लिंगीका अविना. भावी रूपसे सुनिश्चित हो । अर्थात् साध्यके होनेपर हो हो और साध्यके न होनेपर न हो। ऐसा साधन ही साध्यको ठीक प्रतीति कराता है । अकलंकदेवने साधन अथवा लिंगको 'साध्याविनाभावाभिनिबोधैकलक्षण' कहा है। अर्थात् साध्यके साथ सुनिश्वित अविनाभाव ही साधनका प्रधान लक्षण है । इसोको संक्षेपमें 'अन्यथानु पपत्ति' भी कहते हैं। 'अन्यथा' यानी साध्यके अभावमें साधनकी 'अतु. पपत्ति-अभावको अन्यथानुपपत्ति कहते हैं । अत: जो साध्यके अभावमें न रहता हो और साध्यके सद्भाव में ही रहता हो वही साधन सच्चा साधन है। साधनको हेतु भी कहते हैं । हेतुके लक्षणके विषयमें बौद्धका पूर्वपक्ष-बौद्ध का कहना है कि हेतुका जो लक्षण 'साध्याविना भाव' कहा है वह ठोक नहीं है, हेतुका एक लक्षण नहीं है, किन्तु उसके तीन लक्षण है । वे तीन लक्षण हैं-१ पक्षधर्मत्व, २ सपक्षसत्त्व और ३ विपक्ष असत्त्व । अर्थात् हेतुको पक्षका धर्म होना चाहिए, सपक्षमें रहना चाहिए और विपक्षमें नहीं हो रहना चाहिए। जिसमें ये तीनों लक्षण पाये जाते है, वही हेतु सम्यक् हेतु है । जैसे, इस पर्वतमें आग है; क्योंकि यह धूमवाला है। जहां-जहां धूम होता है वहाँ-वहाँ आग अवश्य होती है, जैसे रसोईघर। और जहाँ आग नहीं होती वहाँ धूम भी नहीं होता, जैसे तालाब । इस अनुमानमें 'पर्वत' पक्ष है, आग साध्य है, 'धूमवाला' हेतु है, रसोईघर सपक्ष है और १. 'साधनात् साध्यविशानमनुमानम् ' ३-१४ । -परीक्षामु० । २. 'लिङ्गात् साध्याविनाभावाभिनिबोधैकलक्षणात् । लिङ्गिधीरनुमानं...'-लघीय० ३-१२। ३. 'मन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं लिङ्गमभ्यते।' -प्रमाणप० पृ० ७२ ४. न्या० कु० च० पृ० ४३८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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