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परोक्षप्रमाण
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विषमच्छद नामका वृक्ष है। और इन वाक्योंका संस्कार उसके मनमें बैठ गया । उसके पश्चात् जब वह मनुष्य उस प्रकारके राजा वगैरहको देखता है तो उसे 'यह राजा है' 'यह भौंरा है' इस प्रकार संज्ञा और संज्ञीके सम्बन्धको प्रतिपत्ति होती है। यह प्रतिपत्ति उपमान तो नहीं है। क्योंकि उपमान तो प्रसिद्ध अर्थकी समानताको अपेक्षा करता है। उक्त उदाहरणोंमें प्रसिद्ध अर्थकी समानताकी कोई अपेक्षा नहीं है । किन्तु उक्त सब ज्ञान स्मृति और प्रत्यक्ष की सहायतासे उत्पन्न होते हैं और जोड़रूप हैं अत: इन सबका अन्तर्भाव प्रत्यभिज्ञान में हो जाता है। अतः उपमानके स्थानपर प्रत्यभिज्ञान प्रमाणको स्वीकार करना ही श्रेयस्कर है। तर्कप्रमाण
जिसे जैन सिद्धान्तमें 'चिन्ता' कहा है उसे ही दार्शनिक क्षेत्रमें तर्क कहते हैं। इसका एक नाम ऊह भी है । व्याप्तिके ज्ञानको तर्क कहते हैं । और साध्य तथा साधनके अविनाभावको व्याप्ति कहते हैं। अविनाभाव एक नियम है और वह नियम दो प्रकारसे व्यवस्थित है। उनमें एक प्रकारका नाम है तथोपपत्ति
और दूसरे प्रकारका नाम है अन्यथानुपपत्ति। इन दोनों प्रकारोंको भी 'अविनाभाव' कहते हैं। साध्य होनेपर ही साधन होता है इसे तथोपपत्ति अविनाभाव कहते हैं। 'साध्यके न होनेपर साधन नहीं होता' इसे अन्यथानुपपत्ति अविनाभाव कहते हैं । जैसे, अग्निके होनेपर ही धूम होता है और अग्निके अभावमें धूम नहीं होता। यहां अग्नि साध्य है और धूम उसका साधन है, क्योंकि धूमको देखकर उससे उस स्थानपर अग्निको सिद्ध किया जाता है । जो सिद्ध किया जाता है उसे साध्य कहते हैं और जिसके द्वारा सिद्ध किया जाता है उसे साधन कहते हैं।
बार-बार धूमके होनेपर अग्निका अस्तित्व देखकर और अग्निके अभावमें धमका अभाव देखकर धूम और अग्निके विषयमें अविनाभाव नियम बनाया जाता है कि जहां-जहां धूम होता है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है । और जहाँ अग्नि नहीं होती वहां धूम भी नहीं होता। इसीका नाम व्याप्ति है।
शंका-'जहाँ अग्नि नहीं होती वहां धूम भी नहीं होता' यह कैसे ज्ञात होता है ?
उत्तर-अग्निके अभावमें धूमको प्रतीति नियमसे नहीं होती। अतः अग्निके होनेपर ही धूम होता है । यदि ऐसा न हो तो जैसे धूमके अभावमें भी कहीं अग्नि पायी जाती है वैसे ही अग्निके अभावमें कहीं धूम भी पाया जाना चाहिए।
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