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________________ जैन न्याय २०८ अतः जो जिसके बिना भी पाया जाता है वह उससे नियत नहीं है । जैसे धूमके अभाव में भी पायी जानेवाली आग धूमसे नियत नहीं है । किन्तु धूम अग्निके बिना नहीं होता अतः वह अग्निसे नियत है । P शंका - अग्नि के अभाव में धूमका नियमसे अभाव होता है ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि जादूगर के घड़ेसे बिना अग्निके भी धूम निकलता हुआ देखा जाता है। उत्तर- ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, जादूगर के घड़े में भी अग्निके होनेपर ही धूमका सद्भाव सम्भव है। अग्निके बिना धुआं उत्पन्न हो नहीं हो सकता । तब जादूगर के घड़े में अग्निके अभाव में धूमके सद्भाव की आशंका कैसे की जा सकती है ? शंका- तब जैसे पर्वतवर धुआं उठता देखकर वहाँ अग्निको जाना जाता है कि पर्वतपर आग है; क्योंकि धुआं उठ रहा है, वैसे ही जादूगर के घड़ेसे धुआं निकलते देखकर उस घड़े में अग्निका सद्भाव क्यों नहीं सिद्ध किया जाता ? उत्तर - पर्वत के धुएँसे जादूगरका धुआँ निराला होता है । पर्वतपर आग जलने से उठा हुआ धुआं घना और ध्वजाकी तरह लहराता हुआ होता है, किन्तु जादूगर के घड़ेसे निकलनेवाला धुआं वैसा नहीं होता । अतः उससे वहाँ अग्निके होने का अनुमान नहीं किया जाता । शंका- यदि अग्नि और धूमकी वास्तव में व्याप्ति है तो प्रथम ही धूम और अग्निका दर्शन होनेपर व्याप्तिका ग्रहण क्यों नहीं होता ? उत्तर - उस समय उसका ग्राहक ज्ञान नहीं है । जिस समय जिसका ग्राहक नहीं होता उस समय उसका प्रतिभास नहीं होता । जैसे रूप दर्शनके समय रसका प्रतिभास नहीं होता । इसी तरह प्रग्नि और धूमके प्रथम दर्शनके समय व्याप्तिका ग्राहक ज्ञान नहीं है इससे उसका ग्रहण नहीं होता । शंका- अग्नि और धूमके प्रथम दर्शन के समय व्याप्तिका ग्राहक ज्ञान क्यों नहीं है ? उत्तर - व्याप्तिज्ञान के कारण दो हैं- एक प्रत्यक्ष और एक अनुपलम्भ | afort होनेपर धूम होनेका ज्ञान प्रत्यक्ष है और अग्निके अभाव में घूमके अभाव - का ज्ञान अनुपलम्भ है । धूम और अग्निके प्रथम दर्शनके समय ये दोनों कारण नहीं होते, इससे उस समय व्याप्तिका ज्ञान नहीं होता । किन्तु व्याप्तिका ज्ञान न होनेसे उस समय धूम और अग्नि में व्याप्तिका अभाव नहीं है; क्योंकि यदि धूम और अग्निके प्रथम दर्शन के समय उनमें व्याप्ति न हो तो धूप और अग्निका बार-बार उपलम्भ और अनुपलम्भ होनेपर व्याप्तिकी प्रतीति कैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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