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________________ जैन न्याय ज्ञान यह प्रतिपत्ति करा सकता है कि यह गवय नामका प्राणी है, अकेला नहीं करा सकता ? तो जिस मनुष्यने उस वाक्यको सुना तो, किन्तु भूल गया उस मनुष्यको भी जगलमें गवय देखकर गौके सादृश्यका ज्ञान यह प्रतिपत्ति करा देगा कि यह गवय नामका प्राणी है ? इन आपत्तियोंके भयसे यदि आप यह स्वीकार करते हैं कि 'गोके समान गवय होता है' इस वाक्यके स्मरणकी सहायतासे ही गौके सादृश्यका ज्ञान यह प्रतिपत्ति कराता है कि 'यह गवय नामका प्राणी है तो 'प्रत्यभिज्ञानके प्रसादसे ही संज्ञा-संज्ञोके सम्बन्धको साक्षात् प्रतिपत्ति होती हैं' यह बात आपने स्वीकार कर ली; क्योंकि गौ और गवयके सादृश्यका परामर्श करके प्रत्यभिज्ञान ही संज्ञा और संज्ञीके सम्बन्धकी प्रतिपत्तिमें कारण होता है। अतः 'गौके समान गवय होता है' इस वाक्यके स्मरणकी सहायतासे ही गवयका प्रत्यक्ष, पहले देखी हुई गो और वर्तमान में सामने मौजूद गवयमें समानताको विषय करनेवाले प्रत्यभिज्ञानको उत्पन्न करता है। प्रत्यभिज्ञानके सिवा अन्य कोई ज्ञान गौ और गवयके सादृश्यको विषय नहीं कर सकता । गवयका प्रत्यक्ष, अथवा गोका स्मरण, अथवा दोनों उक्त सादृश्यको विषय नहीं कर सकते यह मीमांसकके द्वारा माने गये उपमान प्रमाणका विचार करते समय कह आये हैं। अतः गौ और गवयके सादृश्यको विषय करनेवाला प्रत्यभिज्ञान ही यह प्रतिपत्ति कराता है कि यह गवय नामका प्राणो है। इसोसे जो संज्ञा और संज्ञोके सम्बन्धकी परम्परया प्रतिपत्तिमें अंग है वह उपमान है, ऐसा कथन भी खण्डित हुआ समझना चाहिए। संज्ञा और संज्ञीके सम्बन्धको साक्षात् प्रतिपत्ति करानेवाले प्रत्यभिज्ञानका जनक होनेसे गोगत सादृश्य ज्ञान आदिको उपचारसे उपमान मानने में हमें कोई आपत्ति नहीं है। इसीसे वृद्ध नैयायिकोंने जो उपमान प्रमाणका लक्षण किया है कि गो और गवयकी समानता बतलानेवाला अतिदेश वाक्य ही उपमान प्रमाण है, वह भी खण्डित हुआ समझना चाहिए; क्योंकि वाक्यरूप प्रमाण तो आगम ही हो सकता है, उपमान नहीं हो सकता। अतः गो और गवयके सादृश्यको विषय करनेवाला प्रत्यभिज्ञान हो वास्तवमें उपमान है उसके सिवा अन्य कोई उपमान प्रमाण नहीं है। तथा यदि इस तरहके ज्ञानको उपमान प्रमाणका फल माना जायेगा तो नैयायिक और मोमांसकको अनेक प्रमाण मानने पड़ेंगे। जैसे, किसी मनुष्यने सुना 'जो सिंहासनपर बैठा हो वह राजा है।' या 'जो दूध और पानीको अलग-अलग कर दे वह हंस है' या छह परका भौंरा होता है, जिसमें सात-सात पत्ते हों वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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