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________________ परोक्षप्रमाण २०५ हो आया। उससे उसे यह ज्ञान हुआ कि 'इस प्राणीका नाम गवय है'। यह ज्ञान प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों का फल नहीं है; क्योंकि प्रत्यक्ष तो वनमें स्थित गवयके आकारमात्रका ज्ञान कराता है, अनुमानमें अन्वय, व्यतिरेक आदि सामग्रीको आवश्यकता होती है जब कि यह उसके बिना ही होता है। आगम प्रमाणका भी यह फल नहीं है; क्योंकि वह मनुष्य 'गौके समान गवय होता है केवल इस वाक्यके स्मरणसे ही जंगल में स्थित पशुको 'यह गवय नामका प्राणी है' इस रूपमें नहीं जानता । किन्तु प्रसिद्ध गौके साथ उसकी समानता देखकर जानता है । और गवयको देखे बिना 'यह गवय नामका प्राणी है' इस प्रकार गवय संज्ञा और गवय संज्ञावाले : प्राणीके सम्बन्धका ज्ञान नहीं हो सकता अतः यह ज्ञान उपमान प्रमाणका ही फल है । उपमानके स्वरूपके विषय में यह नव्य नैयायिकोंका मत है । वृद्ध नैयायिकों का मत कुछ भिन्न है । वे उपमानका स्वरूप इस प्रकार बतलाते हैं - कोई नागरिक पुरुष गवयके स्वरूपसे अनभिज्ञ है । वह किसी जानकार वनवासीसे पूछता है कि 'गवय कैसा होता है ?' वनवासी कहता है कि 'जैसी गो होती है वैसा ही गवय होता है । यह वाक्य अप्रसिद्ध गवयकी प्रसिद्ध गौके साथ समानता बतलाते हुए अप्रसिद्ध पशुको गवयशब्द वाच्य ज्ञापित करता है । यह उपमान प्रमाण है । । ( उत्तरपक्ष ) नैयायिकों के उपमानप्रमाणका सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में अन्तर्भावजैनों का कहना है कि 'जो संज्ञा और संज्ञीके सम्बन्धको साक्षात् प्रतिपत्तिका अंग है उसे यदि उपमान प्रमाण मानते हैं तो मीमांसकोंके द्वारा माने गये उपमान प्रमाणसे नैयायिकों के उपमान प्रमाण में कोई विशेषता नहीं रहती और ऐसा होने से मीमांसकोंके उपमान प्रमाणमें जो दूषण दिये हैं वे सब नैयायिकोंके उपमान प्रमाण में भी आते हैं । नैयायिकों द्वारा कल्पित अत्रसिद्ध गवयपिण्ड में इन्द्रियोंसे होनेवाला प्रसिद्ध गोपिण्डके सादृश्यका ज्ञान संज्ञा-संज्ञीके सम्बन्धकी साक्षात् प्रतिपत्तिका अंग नहीं हो सकता । यदि वह उसकी प्रतिपत्तिका अंग है तो अकेला या संज्ञा-संज्ञीके सम्बन्धकी स्मृतिकी सहायताकी अपेक्षा लेकर ? यदि अकेला ही उसकी प्रतिपत्तिका अंग है तो जिसने यह नहीं सुना कि गोके समान गवय होता है। किन्तु गौको देखा है ऐसे नागरिकको भी जंगल में गवयको देखकर गौके सादृश्यका ज्ञान यह प्रतिपत्ति करा देगा कि यह गवय नामका प्राणी है । शायद कहा जाये कि 'गौके समान गवय होता है' इस वाक्यके सुननेकी सहायतासे ही गौके सादृश्यका १० न्या० कु० च०, पृ० ४६७ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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