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________________ २०१ जैन न्याय फिर गौ और गवयमें सादृश्यव्यवहार करके यह संकलन करता है कि इसके समान गौ है । और जो संकलनात्मक ज्ञान होता है वह प्रत्यभिज्ञान ही है। मीमांसक-यदि इस ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान मानते हैं तो इसे भी स्मरण और प्रत्यक्ष रूप सामग्रीसे उत्पन्न होना चाहिए। किन्तु वह सामग्री उपमानमें नहीं है, उपमान तो गवयके प्रत्यक्ष रूप सामग्री मात्रसे उत्पन्न होता है । जैन-ऐसा कहना ठीक नहीं है, उपमान में भी प्रत्यक्ष और स्मरणरूप सामग्री मोजूद है। हम पूछते हैं कि गवयका प्रत्यक्ष 'इसके समान गौ है' इस ज्ञानको स्मरणकी सहायतासे उत्पन्न करता है अथवा उसकी सहायताके बिना उत्पन्न करता है ? यदि स्मरणको सहायताके बिना भी गवय प्रत्यक्ष 'इसके समान गो है' इस ज्ञानको उत्पन्न करता है तो जिस व्यक्तिने गौको कभी नहीं देखा उसे भी गवयके देखनेसे यह ज्ञान उत्पन्न होना चाहिए कि इसके समान गौ है। यदि स्मरणको अपेक्षासे उक्त ज्ञान उत्पन्न होता है तो स्मरणमात्रकी सहायतासे उत्पन्न होता है अथवा गोका स्मरण होनेपर ही उत्पन्न होता है ? यदि स्मरणमात्र. को सहायतासे ही गवय प्रत्यक्ष उक्त ज्ञानको उत्पन्न करता है तो गनयको देखते समय घोड़ेका स्मरण आ जानेसे भी ‘इसके समान गो है' यह ज्ञान उत्पन्न हो जाना चाहिए। यदि गौका स्मरण होनेपर हो गवय प्रत्यक्ष उक्त ज्ञानको उत्पन्न करता है तो केवल गोको स्मृति होनेसे करता है या सादृश्य विशिष्ट गौका स्मरण होनेसे करता है ? प्रथम पक्षमें भैंसका स्मरण होनेपर भी गवय प्रत्यक्ष उक्त ज्ञानको उत्पन्न कर देगा क्योंकि बिना सादृश्य प्रतीति के जैसी ही भैंस वैसी हो गौ। यदि गवयकी समानतासे युक्त गौके स्मरण की अपेक्षासे ही गवय प्रत्यक्ष 'इसके समान गौ है' इस ज्ञानको उत्पन्न करता है, तो यह सिद्ध होता है कि सादृश्यका प्रत्यक्ष पहले ही गोदर्शन कालमें हो जाता है, यदि ऐसा न हो तो उत्तरकालमें गवयगत सादृश्य से विशिष्ट गोका स्मरण नहीं हो सकता। अतः स्मृति और प्रत्यक्षको सहायतासे उत्पन्न होनेवाला उपमान प्रत्यभिज्ञानसे पृथक् प्रमाण नहीं है। उपमानप्रमाणवादी नैयायिकका पूर्वपक्ष--नैयायिक भी उपमान नामका एक स्वतन्त्र प्रमाण मानता है, किन्तु उसके उपमानका लक्षण मीमांसकसे भिन्न है । अतः उसका कहना है कि मोमांसकका उपमान प्रमाण प्रत्यभिज्ञान वगैरहसे भले ही जुदा प्रमाण न हो, किन्तु नैयायिकोंने जो उपमान माना है वह तो एक स्वतन्त्र ही प्रमाण है । उसका स्वरूप इस प्रकार है-किसी मनुष्यने यह सुना कि जैसी गौ होती है वैसा ही गवय होता है। उसके पश्चात् उसे जंगल में घूमते हुए गौके समान एक पशु दिखाई दिया। उसे देखते हो उसे पहले सुने हुए वाक्यका स्मरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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