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________________ २०३ परोक्षप्रमाण उपमानका सादृश्य प्रत्यभिज्ञानमें अन्तर्भाव . उत्तरपक्ष-जैनोंका कहना है कि मीमांसकने उपमानका जो स्वरूप बतलाया है वही ठं क नहीं है, क्योंकि उस प्रकारसे प्रतीति ही नहीं होती। जिस मनुष्यने यह नहीं सुना कि 'गौके समान गवय होता है' जंगल में घूमते हुए यदि वह गौके समान किसी ऐसे पशुको देखता है जिसे उसने पहले नहीं देखा तो उसको यही प्रतीति होती है कि 'यह गौके समान ही कोई जानवर है। किन्तु 'इसके समान गो है' इस प्रकारका ज्ञान या व्यवहार किसीको भी नहीं होता। और यदि किसीको ऐसा ज्ञान हो भो तो यह प्रत्यभिज्ञानसे जुदा प्रमाण नहीं है । मीमांसक-प्रत्यभिज्ञान अनुभूत पदार्थमें ही होता है; क्योंकि वह प्रत्यक्ष और स्मरणसे उत्पन्न होता है। किन्तु सामने वर्तमान गवयमें रहनेवाले सादृश्यके साथ गौका अनुभव पहले कभी नहीं हुआ; क्योंकि गवयको बिना जाने गवयगत सादृश्यसे विशिष्ट गोको कैसे जान सकता है। तब प्रत्यभिज्ञानको प्रवृत्ति इसमें कैसे हो सकती है ? जैन- इस तरहसे तो 'यह वही है' इत्यादि प्रतीतिको भी प्रत्यभिज्ञान नहीं कहा जा सकेगा; क्योंकि पहले जब देवदत्तको देखा था तब उसको उत्तरपर्यायका अनुभव नहीं हुआ था। शायद कहा जाये कि एकत्व प्रत्यभिज्ञानमें यद्यपि उत्तर पर्यायका पहले अनुभव नहीं होता किन्तु उस पर्याय में अनुस्यूत जो देवदत्त नामक द्रव्य है उसका अनुभव तो पहले हो जाता है अतः प्रत्यभिज्ञान सम्भव है । तो यह बात तो सादृश्य प्रत्यभिज्ञानमें भी सम्भव है । क्योंकि यद्यपि गवयका पहले प्रत्यक्ष नहीं हुआ किन्तु सादृश्यका प्रत्यक्ष तो पहले ही हो गया । मीमांसक-जब गवयका प्रत्यक्ष नहीं हुआ तो सादृश्यका प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? जैन-सादृश्यका प्रत्यक्ष कब नहीं हुआ ? गौको देखने के समय नहीं हुआ या बादमें नहीं हआ ? यदि गौके प्रत्यक्षके समय सादृश्यकी प्रतीति न होनेसे उसे गौका विशेषण नहीं मानते हो तो एकत्व प्रत्यभिज्ञानमें पूर्व पर्यायको प्रतोतिके समय उत्तर पर्यायकी प्रतीति नहीं होतो अत: उत्तर पर्याय देवदत्तरूप द्रव्यका विशेषण नहीं हो सकती। यदि बादमें होनेवाले प्रत्यक्षसे उत्तर पर्यायको प्रतीति होनेपर भी उत्तर पर्याय देवदत्तरूप द्रव्यका विशेषण हो सकती है तो गवयको जाननेवाले प्रत्यक्षसे जाना हुआ सादृश्य भी पहले देखी हुई गौका विशेषण हो सकता है। अतः ज्ञाता पुरुष गवयको देखकर पहले अनुभूत गोका स्मरण करता है और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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