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जैन न्याय
उपमान प्रमाण कहते हैं । यदि उपमान प्रमाणको नहीं माना जायेगा तो गवयके देखने से दूरवर्ती गोमें जो सादृश्यज्ञान होता है वह कैसे होगा ?
वह उपमान पहले नहीं जानी गयी वस्तुका ही ज्ञान कराता है इसलिए इसे प्रमाण मानना चाहिए । यद्यपि उस मनुष्यने गौको पहले ही जान लिया था और गवयको देखते ही उसमें रहनेवाले सादृश्यको प्रत्यक्षसे जान लिया । किन्तु 'गवयके समान गो है' इसको पहले नहीं जाना अतः उपमानका विषय अपूर्व ही है । शायद कहा जाये कि गवयके दर्शन कालमें ही गौका स्मरणसे और सादृश्यका प्रत्यक्ष से ज्ञान हो जाता है और इसके अतिरिक्त और कुछ जानने को नहीं है अतः उपमान जानी हुई बातको ही जानता है ? किन्तु ऐसा कहना भी अयुक्त है यद्यपि प्रत्यक्ष से सादृश्यका और स्मृतिसे गौका ज्ञान हो जाता है फिर भी सादृश्यविशिष्ट गौका ज्ञान न तो स्मृतिसे होता है, न प्रत्यक्षसे होता है और न दोनोंसे होता है । उसको तो उपमान ही जानता है अत: उपमान अगृहीतग्राही होनेसे प्रमाण है । अनुमानको भी तो इसीलिए प्रमाण माना जाता है । यद्यपि पर्वत आदि स्थानका प्रत्यक्ष हो जाता है और स्मृतिसे अग्निका बोध हो जाता है, फिर भी अग्निविशिष्ट पर्वतका ज्ञान तो अनुमानसे ही होता है, अतः अनुमान प्रमाण है, इसी तरह उपमानको भी प्रमाण मानना चाहिए । शायद आप कहें कि उपमान प्रमाण भले ही हो, किन्तु वह एक स्वतन्त्र प्रमाण नहीं है । किन्तु ऐसा कहना भी उचित नहीं है; क्योंकि उपमानका अन्तर्भाव प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों में नहीं हो सकता । इसका विशेष इस प्रकार है - उपमान प्रत्यक्षरूप नहीं है; क्योंकि परोक्ष गौमें इन्द्रिय सम्बन्ध के बिना ही उपमान प्रमाण उत्पन्न होता है । स्मरण रूप भी नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षसे जाने हुए पदार्थका ही कालान्तर में स्मरण हुआ करता है । अतः जिस समय गौका प्रत्यक्ष हुआ था उस समय गत्रयका प्रत्यक्ष न होनेसे स्मरण गवयगत सादृश्यको नहीं जान सकता । अतः उपमान स्मरणरूप नहीं है । उपमान अनुमानरूप भी नहीं है, क्योंकि अनुमान लिंग ( हेतु ) से उत्पन्न होता है और यह लिंगसे उत्पन्न नहीं होता । तथा यह शब्द प्रमाण भी नहीं है, क्योंकि जिसने गौके समान गवय होता है, यह वाक्य नहीं सुना उस मनुष्यको उपमान ज्ञान होता है । यह अर्थापत्ति प्रमाण भी नहीं है क्योंकि अर्थापत्ति किसी ऐसे देखे हुए अथवा सुने हुए अर्थकी अपेक्षा लेकर होती है जिसके बिना वैसा हो सकना शक्य न हो । किन्तु उपमान में किसी ऐसे दृश्य अथवा श्रुत अर्थकी अपेक्षा नहीं रहती । और अभाव प्रमाण तो यह हो ही कैसे सकता है, क्योंकि अभाव तो वस्तुके अभावको जानता है और उपमान सद्भावको जानता है । अत: उपमान एक स्वतन्त्र प्रमाण है ।
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