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परोक्षप्रमाण
आदि भी अप्रमाण हो जायेंगे; क्योंकि उनका विषय भी सर्वथा अपूर्व नहीं होता ।
क्योंकि उसका कोई अथवा अनुमान है ।
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उसकी प्रवृत्ति ही
तथा बाध्यमान होनेसे भी प्रत्यभिज्ञान अप्रमाण नहीं है; TET ही नहीं है । यदि कोई बाधक है तो वह प्रत्यक्ष है प्रत्यक्ष बाधक नहीं हो सकता; क्योंकि प्रत्यभिज्ञानके विषय में नहीं है । और जो जिसके विषयको नहीं जानता वह उसका बाधक नहीं हो सकता | जैसे रूपज्ञानका रसज्ञान बाधक नहीं है । इसी तरह अनुमान भी बाधक नहीं हो सकता; क्योंकि प्रत्यभिज्ञानके विषय में अनुमानकी भी प्रवृत्ति नहीं है । और यदि प्रवृत्ति हो भी तो वह उसका समर्थक ही होता है बाधक नहीं ।
बौद्ध-- नाखून कट जानेपर पुनः बढ़ जाते हैं । अतः कटनेपर बढ़े हुए नाखूनों को यदि कोई प्रत्यभिज्ञानसे जान ले कि 'ये वही नाखून हैं' तो उसका ज्ञान बाध्यमान देखा जाता है । तब प्रत्यभिज्ञान प्रमाण कैसे है ?
जैन -- यदि कटनेपर पुनः बढ़े हुए नखोंमें 'यह वही नख हैं' यह प्रत्यभिज्ञान बाधित होता है तो इससे सच्चे प्रत्यभिज्ञानमें बाधा कैसे आ सकती है ? यदि एक जगह किसी ज्ञानके असत्य सिद्ध होनेपर सब जगह उस ज्ञानको असत्य माना जायेगा तो सीपमें चांदीका ज्ञान भ्रान्त होता है, इसलिए क्या चांदी में होनेवाला चाँदीका ज्ञान भी भ्रान्त माना जायेगा ? अत: एकत्व प्रत्यभिज्ञानको न मानना युक्त नहीं हैं ।
क्योंकि सादृश्य
।
इसी तरह सादृश्य प्रत्यभिज्ञानको न मानना भी अनुचित है, प्रत्यभिज्ञानके अभाव में अनुमान प्रमाण उत्पन्न नहीं हो सकता जिस मनुष्यने पहले धूमसहित अग्निको देखा है उसीको बादमें पूर्व धूमके समान धूमके देखने से अग्निका अनुमानज्ञान होता है, अन्यको नहीं । और बिना प्रत्यभिज्ञानके 'यह धूम पहले देखे हुए धूमके समान है' यह ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि पहलेका प्रत्यक्ष वर्तमान धूमको नहीं जान सकता, और अबका प्रत्यक्ष पहले देखे हुए धूमको नहीं जान सकता । और दोनोंको जाने बिना दोनोंमें रहनेवाले सादृश्यको नहीं जाना जा सकता । अतः एकत्व प्रत्यभिज्ञानकी तरह सादृश्य प्रत्यभिज्ञानको भी मानना चाहिए ।
मनुष्यने गोको तो देखा,
समान गवय होता है, वह
उपमान प्रमाणवादी मीमांसकका पूर्वपक्ष - जिस किन्तु गवयको नहीं देखा और न यही सुना कि गौके मनुष्य जंगलमें घूमते हुए गवयको देखता है । गवयको देखनेके अनन्तर उसे 'इसके 'समान गौ होती है' इस प्रकारका जो परोक्ष गौमें सादृश्य ज्ञान होता है उसे
१. न्या० कु० च०, पृ० ४८६ । प्र० क० मा०, पृ० ३४७ 1
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