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जैन न्याय
अतीतकालीन वस्तु है किन्तु प्रत्यभिज्ञानका विषय अतीत और वर्तमान कालमें रहनेवाला द्रव्य-विशेष है। शायद कहा जाये कि सभी अर्थ प्रतिसमय क्षणिक हैं अतः ऐसा कोई द्रव्य-विशेष नहीं है जो प्रत्यभिज्ञानका विषय हो। किन्तु ऐसा कहना भी असंगत है। क्योंकि विचार करनेपर क्षणिकत्व सिद्ध नहीं होता।
अतः विषयके न होनेसे प्रत्यभिज्ञानको अप्रमाण नहीं कहा जा सकता और न गृहीतग्राही होनेसे ही उसे अप्रमाण कहा जा सकता है; क्योंकि प्रत्यभिज्ञानके विषयको अन्य कोई प्रमाण ग्रहण नहीं कर सकता। इसका विशेष इस प्रकार है---प्रत्यक्ष वर्तमान वस्तुका ग्राहक है, अतः वह अतीत और वर्तमान पर्यायमें रहनेवाले एकत्वको ग्रहण करने में असमर्थ है। स्मरण केवल अतीत पर्यायको विषय करता है अत: वह भी उसे ग्रहण नहीं कर सकता। अतः प्रत्यभिज्ञानके सिवा अन्य कोई प्रमाण ऐसा नहीं है, जो अतीत और वर्तमान पर्यायमें रहनेवाले एकत्वको विषय कर सके ।
बौद्ध--यदि प्रत्यक्ष और स्मरण एकत्वको विषय करने में असमर्थ हैं तो वे दोनों एकत्वको विषय करनेवाले प्रत्यभिज्ञानको कैसे उत्पन्न कर देते हैं, क्योंकि जो जिसका विषय नहीं होता वह उसके विषयमें ज्ञानको उत्पन्न नहीं कर सकता, जैसे चक्षु रसके विषयमें ज्ञान उत्पन्न नहीं कर सकती। इसी तरह एकत्व भी प्रत्यक्ष और स्मरणका विषय नहीं है ।
जैन--उक्त कथन ठीक नहीं है क्योंकि इससे तो बौद्धमतमें ही दूषण आता है। बौद्ध निर्विकल्पक प्रत्यक्षसे सविकल्पक प्रत्यक्षकी उत्पत्ति मानता है और निर्विकल्पक प्रत्यक्ष सामान्यको विषय नहीं करता फिर भी वह उसमें सविकल्पक ज्ञानको उत्पन्न कर देता है ।
बौद्ध-यद्यपि सामान्य रूप अवस्तु निविकल्पकका विषय नहीं है फिर भी विकल्प वासनाकी सहायतासे निर्विकल्पक उसमें सविकल्पक ज्ञानको उत्पन्न कर देता है।
जैन-यह युक्ति तो हमारे पक्षमें भी समान है। प्रत्यक्ष भी स्मरणकी सहायतासे एकत्वमें प्रत्यभिज्ञानको उत्पन्न कर देता है।
यद्यपि एकत्व प्रत्यक्षका भी विषय है, किन्तु वह नियत वर्तमान पर्यायमें रहनेवाले एकत्वको ही विषय करता है। परन्तु प्रत्यभिज्ञान अतीत और वर्तमान पर्यायमें रहनेवाले एकत्वको विषय करता है । अतः प्रत्यभिज्ञानका विषय कथंचित् अपूर्व है, इसलिए गृहीतग्राही होनेसे उसे अप्रमाण नहीं माना जा सकता। यदि सर्वथा अपूर्व अर्थको विषय करनेवाले ज्ञानको ही प्रमाण माना जायेगा तो अनुमान
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