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________________ परोक्षप्रमाण प्रत्यक्ष और स्मरण रूप सामग्री से उत्पन्न होने वाला प्रत्यभिज्ञान दोनों आकारोंको लेकर ही उत्पन्न होता है । जैसे बोद्धमत में एक ही ज्ञान परोक्ष और अपरोक्ष तथा निर्विकल्प और सविकल्प दो विरोधी धर्मोका आधार होता है वैसे ही प्रत्यभिज्ञान भी यदि दो धर्मोका आधार हो तो उसमें क्या आपत्ति है ? अतः बौद्धोंका यह प्रश्न कि दोनों आकार परस्पर में अलग-अलग प्रतिभासित होते हैं या एकमेक होकर प्रतिभासित होते हैं, व्यर्थ ही है । दोनों आकारोंके 'एकमेक' का मतलब यदि 'एक आधार में रहना है तो हमें इष्ट है; क्योंकि एक प्रत्यभिज्ञानमें दोनों आकार निर्बाधरूप से प्रतीत होते हैं । और जो निर्बाध रूपसे प्रतीत हो, उसमें कुतर्क करने से कोई लाभ नहीं है । यदि इस तरह कुतर्क किया जाये तो बौद्धोंका चित्रज्ञान भी नहीं सिद्ध हो सकता । अतः परस्परमें विरोधी दो धर्मोका आधार होने से प्रत्यभिज्ञानका अभाव सिद्ध करना युक्त नहीं है । इसी तरह कारणका अभाव होनेसे प्रत्यभिज्ञानका अभाव सिद्ध करना भी अनुचित है, क्योंकि प्रत्यक्ष और स्मरण प्रत्यभिज्ञान के कारण हैं । शायद कहा जाये कि प्रत्यक्ष और स्मरणका तो भिन्न-भिन्न विषय है तथा प्रत्यक्षका आकार 'यह' है और स्मरणका आकार 'वह' है तब ये दोनों एक प्रत्यभिज्ञानके कारण कैसे हो सकते हैं ? किन्तु यह आशंका उचित नहीं है, क्योंकि जो जिसके होनेपर ही होता है और नहीं होनेपर नहीं होता, वह उसका कारण माना जाता है। जैसे बीजके होनेपर ही अंकुर उत्पन्न होता है और बीजके अभाव में अंकुर नहीं होता तो बीजको अंकुरका कारण माना जाता है । वैसे ही दर्शन और स्मरणके होनेपर ही प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता है अतः दर्शन और स्मरण उसके कारण हैं । १९९ अब रह जाता है प्रश्न प्रत्यभिज्ञानके प्रमाण होनेका । जो प्रत्यभिज्ञानको प्रमाण नहीं मानते उनसे हमारा प्रश्न है कि वे उसे प्रमाण क्यों नहीं मानते ? क्या उसका कोई विषय नहीं है ? या वह गृहीतग्राही है अथवा वह दूसरे प्रमाण के द्वारा बाध्यमान है ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं है, क्योंकि पूर्व और उत्तर पर्यायोंमें रहनेवाला एक द्रव्य प्रत्यभिज्ञानका विषय है । इसके सिवा प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे जब प्रत्यभिज्ञानका स्वरूप भिन्न है तो उसका विषय भी भिन्न होना ही चाहिए । क्योंकि जिसका जिससे भिन्न स्वरूप होता है तो उसका उससे विषय भी विलक्षण होता है । जैसे प्रत्यक्षसे स्मरणका स्वरूप भिन्न है तो विषय भी भिन्न हैं, वैसे ही प्रत्यभिज्ञानका स्वरूप अन्य ज्ञानोंसे विलक्षण है । अतः उसका विषय भी जुदा ही है । प्रत्यक्षका विषय वर्तमान वस्तु है और स्मरणका विषय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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