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जैन न्याय
हो सकता; क्योंकि उसका कोई विषय नहीं है । उसका विषय पूर्वज्ञानमें प्रतिभासित वस्तु है या उससे कोई भिन्न है ? यदि पूर्वज्ञानसे जानी हुई वस्तुको ही प्रत्यभिज्ञान जानता है तो धारावाही ज्ञानकी तरह गृहीतग्राही होने से वह प्रमाण नहीं है । यदि पूर्व ज्ञानमें प्रतिभासित वस्तुसे प्रत्यभिज्ञानका विषय भिन्न है तो वह किस बात में भिन्न है ?
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शायद कहा जाये कि अतीत कालवर्ती और वर्तमान कालवर्ती देवदत्त में ऐक्यकी प्रतीति प्रत्यभिज्ञानसे होती है । अतः पूर्वज्ञान में प्रतिभासित वस्तुको विशेषरूपसे प्रत्यभिज्ञान जानता है इसलिए वह अगृहीतग्राही होनेसे प्रमाण है, किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह ऐक्य क्या चीज है, जिसे आप प्रत्यभिज्ञानका विषय बतलाते हैं- एकत्व संख्या या स्थायित्व ? यदि ऐक्यसे मतलब एकत्व संख्यासे है तो एकत्व संख्याकी प्रतीति तो प्रत्यक्ष कालमें ही हो जाती है; क्योंकि प्रत्यक्ष से एक देवदत्तका ज्ञान होता है तब प्रत्यभिज्ञानके विषय में प्रत्यक्ष से क्या विशेषता रही ? यदि एकत्वसे मतलब स्थायित्वसे है तो वह स्थायित्व देव - दत्तसे भिन्न है या अभिन्न है ? यदि अभिन्न है तो जिस समय पूर्वज्ञानने देवदत्तको जाना उसी समय उससे अभिन्न स्थायित्वको भी उसीने जान लिया, तब प्रत्यभिज्ञान गृहीतग्राही क्यों नहीं हुआ ।
यदि वह स्थायित्व देवदत्त से भिन्न है तो वह प्रत्यभिज्ञानके समय में ही देवदत्त में उत्पन्न होता है अथवा उससे पहले उत्पन्न हो जाता है । यदि पहले उत्पन्न हो जाता है तो पूर्वज्ञान जब देवदत्तको जानता है तब उसके स्थायित्वको भी जान लेगा फिर प्रत्यभिज्ञानका विषय पूर्वज्ञानसे अधिक कैसे हुआ ?
यदि वह स्थायित्व प्रत्यभिज्ञानके समय हो उत्पन्न होता है तो वह प्रत्यभिज्ञानका विषय नहीं हो सकता; क्योंकि पहले जाने हुए पदार्थको कालान्तर में जाननेपर ही प्रत्यभिज्ञान होता है । अतः प्रत्यभिज्ञान नामका कोई प्रमाण नहीं है ।
उत्तरपक्ष-- जैनों का कहना है कि जैसे चित्रज्ञानमें नोल, पोत आदि अनेक रूपोंकी प्रतीति होती है वैसे ही प्रत्यभिज्ञानमें 'यह वही है' इन दो आकारोंकी प्रतीति होती है । अतः एक ज्ञानमें दो आकारोंके प्रतिभासित होने में कोई विरोध नहीं है । जैसे बौद्धमत में चित्रपट आदि सामग्रीसे एक चित्रज्ञान पैदा होता है अथवा प्रत्यक्षादि सामग्रीसे निर्विकल्पक और सविकल्पक आकारोंको लिये हुए एक विकल्प ज्ञान उत्पन्न होता है । वैसे ही
१. न्या० कु० च०, पृ० ४१४ । प्र० क० मा०, पृ० ३४० ।
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