SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ परोक्षप्रमाण १९७ वही देवदत्त है। इस ज्ञानके होनेमें प्रत्यक्ष और स्मरण कारण होते हैं । तथा यह ज्ञान पहले देखे हुए देवदत्तमें और वर्तमानमें सामने विद्यमान देवदत्तमें रहनेवाले एकत्वको विषय करता है, इसलिए इसे एकत्व प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । किसी मनुष्यने गवय नामका पशु देखा । देखते ही उसे पहले देखी हुई गौका स्मरण हुआ उसके पश्चात् 'गोके समान यह गवय है' ऐसा ज्ञान होता है । यह सादृश्य प्रत्यभिज्ञान है। भैंसको देखकर गौका स्मरण हो आनेपर "भैस गौसे विलक्षण होती है' होनेवाला यह ज्ञान वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञान कहा जाता है । इसी तरह प्रत्यक्ष और स्मरणके विषयभूत पदार्थों में परस्परकी अपेक्षाको लिये हुए जितने भी जोड़रूप ज्ञान होते हैं, जैसे यह उससे दूर है, यह उससे पास है, यह ऊँचा है या यह उससे नोचा है आदि, वे सब प्रत्यभिज्ञान हैं। पूर्वपक्ष--क्षणिकवादी बौद्ध स्मृतिकी तरह प्रत्यभिज्ञानको भी प्रमाण नहीं मानता। उसका कहना है--पहले जानी हुई वस्तुको पुनः कालान्तरमें 'यह वही है' इस रूपसे जाननेका नाम प्रत्यभिज्ञान है। किन्तु यह एक ज्ञान नहीं है; क्योंकि इसमें 'वह' यह ज्ञान स्मरणरूप होनेसे अस्पष्ट है और 'यह' ज्ञान प्रत्यक्ष रूप होनेसे स्पष्ट है । अत: अस्पष्ट और स्पष्टरूप दो विरोधी धर्मोका आधार एक ज्ञान नहीं हो सकता। यदि हो सकता है तो ये दो आकार प्रत्यभिज्ञानमें एकमेक होकर प्रतिभासित होते हैं अथवा अलग-अलग प्रतिभासित होते हैं। यदि एकमेक होकर प्रतिभासित होते हैं तो दोनोंमें से किसी एक आकारका ही प्रतिभास होना चाहिए क्योंकि दूसरा आकार तो उससे अभिन्न है। और यदि दोनों आकार अलग-अलग प्रतिभासित होते हैं तो यह एक ज्ञान न होकर अलगअलग दो ज्ञान सिद्ध होते हैं तब प्रत्यभिज्ञान नामका एक ज्ञान कैसे सम्भव है ? दूसरे, प्रत्यभिज्ञानका कोई कारण भी नहीं है। उसका कारण इन्द्रिय है, अथवा पूर्व प्रत्यक्षसे उत्पन्न हुआ संस्कार है, अथवा दोनों हैं ? इन्द्रिय प्रत्यभिज्ञानका कारण हो नहीं सकती; क्योंकि वह वर्तमान पदार्थका ही ज्ञान करा सकती है। संस्कार भी प्रत्यभिज्ञानका कारण नहीं है; क्योंकि वह स्मरणका कारण है। इन्द्रिय और संस्कार दोनों भी प्रत्यभिज्ञानके कारण नहीं है, क्योंकि दोनोंको कारण मानने से दोनों पक्षोंमें दिया गया दोष उपस्थित होगा। अन्य कोई कारण भी प्रतीत नहीं होता जिसे प्रत्यभिज्ञानका कारण माना जाये अतः प्रत्यभिज्ञान नामका कोई ज्ञान सम्भव नहीं है । यह मान भी लिया जाये कि प्रत्यभिज्ञान सम्भव है तो भी वह प्रमाण नहीं २. न्या० कु. च०, पृ० ४११ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy