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जैन न्याय ऐसा माननेसे तो प्रत्यक्ष भी अप्रमाण ठहरेगा; क्योंकि क्षणिकवादी बौद्ध प्रत्यक्षके विषयभूत अर्थको प्रत्यक्षकालमें सत् नहीं मानते । अतः अविद्यमानको जानने के कारण प्रत्यक्ष भी अप्रमाण ठहरता है। __इसी तरह यदि अर्थसे उत्पन्न न होनेके कारण स्मृति अप्रमाण है, तो प्रत्यक्ष भी अप्रमाण ठहरेगा; क्योंकि प्रत्यक्षकालमें बौद्ध मतानुसार अर्थके न रहनेसे प्रत्यक्ष भी अर्थसे उत्पन्न नहीं होता । तथा अर्थ ज्ञानका कारण नहीं है, यह पहले कह भी आये हैं अत: यह आपत्ति भी उचित नहीं है।
भ्रान्त होनेसे स्मृतिको प्रमाण न मानना भी उचित नहीं है; क्योंकि अपने विषयमें स्मृति निर्धान्त होती है। हां, यदि कहीं भ्रान्ति पायी जाये तो उसे स्मृति न मानकर स्मृत्याभास मानना चाहिए। जैसे कि जिस प्रत्यक्षमें भ्रान्ति होती है उसे प्रत्यक्ष न मानकर प्रत्यक्षाभास ( झूठा प्रत्यक्ष ) कहते हैं। इसी तरह समारोपको दूर न करनेके कारण स्मृतिको प्रमाण न मानना भी अनुचित है। क्योंकि स्मृतिके विषयभूत अर्थमें विपरीत आरोपका प्रवेश सम्भव नहीं है। ___स्मृतिसे कोई प्रयोजन नहीं सधता इसलिए वह अप्रमाण है, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि अनुमान प्रमाणकी प्रवृत्ति स्मृति प्रमाणपर ही निर्भर है। जो मनुष्य पहले साध्य और साधनका सम्बन्ध निर्णीत कर लेता है कि जहाँ-जहाँ. धूम होता है वहां अग्नि अवश्य होती है, वह मनुष्य जब कहीं धुआं देखता है तो तत्काल उसे धूम और अग्निके पूर्व निर्णीत सम्बन्धका स्मरण होता है और उसके बाद वह अनुमानसे अग्निको जान लेता है। अतः अनुमान प्रमाणको प्रवृत्तिमें कारण होनेसे स्मृतिके प्रामाण्यका निषेध कैसे किया जा सकता है ? यदि स्मृति प्रमाण न हो तो अनुमान प्रमाण ही नहीं बन सकता। अतः स्मृतिको एक स्वतन्त्र प्रमाण मानना चाहिए । प्रत्यभिज्ञान प्रमाण
'प्रत्यक्ष और स्मरणको सहायतासे जो जोड़ रूप ज्ञान होता है उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । जैसे यह वही देवदत्त है, गवय गौके समान होता है, भैस गौसे विलक्षण होती है, यह उससे दूर है, इत्यादि जितने भी इस तरहके जोड़ रूप ज्ञान होते हैं वे सब प्रत्यभिज्ञान हैं । इन उदाहरणोंका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-सामने देवदत्तको देखकर पहले देखे हुए देवदत्तका स्मरण आनेसे यह ज्ञान होता है कि यह
१. दर्शनस्मरणकारणकं संकलनं प्रत्यभिज्ञानम् । तदेवेदं, तत्सदृशं, तद्विलक्षणं तत्प्रति
योगीत्यादि ।'-परीक्षामु० ३-५ ।
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