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पृष्ठभूमि
दार्शनिकों में यह विवादका विषय रहा है कि ज्ञानको स्वप्रकाशक, परप्रकाशक या स्वपरप्रकाशक माना जाये । सम्भवतः आचार्य कुन्दकुन्दने हो ज्ञानकी स्वपरप्रकाशताको स्वीकार करते हुए जैन दर्शनमें इस चर्चाका प्रथम सूत्रपात किया और उनके बादके सभी आचार्योंने आचार्य कुन्दकुन्दके इस मन्तव्यको एक स्वरसे माना ।
आचार्य कुन्दकुन्दने प्रवचनसार (१-४०, ४९, ५४ - ५८ ) में प्रत्यक्ष परोक्ष ज्ञानकी व्याख्या देकर उन व्याख्याओंको युक्तिसे भी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है। उनका कहना है कि दूसरे दार्शनिक इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको प्रत्यक्ष मानते हैं किन्तु इन्द्रियाँ तो अनात्म रूप होनेसे पर द्रव्य हैं अतएव इन्द्रियोंके द्वारा उपलब्ध वस्तुका ज्ञान प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है । इन्द्रियजन्य ज्ञानके लिए तो परोक्ष शब्द ही उपयुक्त है क्योंकि जो ज्ञान परसे होता है उसे परोक्ष कहते हैं (प्रवचनसार १-५७,५८) ।
आचार्य कुन्दकुन्दने व्यवहार दृष्टिसे तो सर्वज्ञकी वही व्याख्या की है जो उत्तरकालीन समस्त जैन साहित्य में पायी जाती है किन्तु निश्चय दृष्टिसे नयी व्याख्या की है । उन्होंने कहा है
"जादि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण
अप्पाणं ॥ "
- नियमसार गाथा १५८ अर्थात् व्यवहार दृष्टिसे केवली सभी द्रव्योंको जानते हैं किन्तु परमार्थतः वह आत्माको ही जानते हैं ।
प्रवचनसार में सर्वज्ञके व्यावहारिक ज्ञानका वर्णन करते हुए उन्होंने इस बातको जोर देकर कहा है कि त्रैकालिक सभी द्रव्यों और पर्यायोंका ज्ञान सर्वज्ञको युगपद् होता है । क्योंकि यदि वह त्रैकालिक द्रव्यों और उनकी पर्यायोंको युगपद् न जानकर क्रमशः जानेगा तो वह किसी एक द्रव्यको भी नहीं जान सकेगा । और जब वह एक ही द्रव्यको उसकी अनन्त पर्यायोंके साथ नहीं जानेगा तो वह सर्वज्ञ कैसे होगा ( १-४८, ४९) । यही तो सर्वज्ञका माहात्म्य है कि वह नित्य कालिक सभी द्रव्य पर्यायोंको युगपद् जानता है (१-५१) । किन्तु जो पर्याय अनुत्पन्न हैं या विनष्ट हो चुकी हैं उन्हें केवलज्ञानी कैसे जानता है ? इस प्रश्नका समाधान करते हुए उन्होंने लिखा है कि समस्त द्रव्योंकी सद्भूत और असद्भूत पर्याय विशेषरूप से वर्तमानकालिक पर्यायोंकी तरह स्पष्ट प्रतिभासित होती हैं ।
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१. नियमसार गा० १६० - १७० ।
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