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________________ जैन न्याय आलोचना की तो जैन विद्वानोंने भी उनका सामना किया और उसके संरक्षणके लिए वाद भी किये । इस संघर्ष के फलस्वरूप जहाँ एक ओर अनेकान्तका तर्कपूर्ण विकास हुआ वहाँ दूसरी ओर उसका प्रभाव भी विरोधी दार्शनिकोंपर पड़ा । दक्षिण भारतमें जैनाचार्यों और मीमांसक तथा वेदान्तियोंके बीच में जो विवाद हुए उसका असर मीमांसादर्शन तथा वेदान्तपर पड़ा । मीमांसक कुमारिल भट्टने अपने मीमांसा श्लोकवार्तिक में जैनाचार्य समन्तभद्रकी शैली और शब्दों में तत्त्वको त्रयात्मक बतलाया है तथा रामानुजाचार्यने शंकराचार्य के मायावाद के विरुद्ध विशिष्टाद्वैतका निरूपण करते समय अनेकान्त दृष्टिका ही उपयोग किया है । जैन दर्शन न तो सृष्टिकर्ता ईश्वरको ही मानता है और न वेदके प्रामाण्यको ही स्वीकार करता है । इसीसे उसकी गणना नास्तिक दर्शनोंमें की जाती है। यद्यपि वह कट्टर आस्तिक है | अतः अनेकान्तके साथ सृष्टिकर्ता ईश्वर और वेदके प्रामाण्य को लेकर भी ईश्वर और वेदवादी दार्शनिकोंसे जैनोंका संघर्ष होता था । ये ही तथा इसी प्रकारकी कुछ अन्य विशेषताएँ हैं जिनको लेकर जैन न्यायका उद्गम तथा विकास हुआ । ३. अकलंक देवके पूर्व जैन न्यायकी स्थिति ऐतिहासिक अनुशीलनके आधारपर अब यह मान लिया गया है कि जैन धर्मके तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ ऐतिहासिक महापुरुष थे और इस तरह ईसवी सन्से ८०० वर्ष पूर्व भारत में जैन धर्मका प्रवर्तन उन्होंने किया था । उनसे २५० वर्षोंके बाद भगवान् महावीर हुए। तीस वर्षकी अवस्था में उन्होंने प्रव्रज्या धारण की और बारह वर्षोंकी कठोर साधना के पश्चात् पूर्ण केवलज्ञान प्राप्त करके प्रथम धर्मदेशना की । उनके प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम थे । उनको जीवके अस्तित्वके विषय में सन्देह था । उस सन्देहका निवारण करने के लिए वह भगवान् महावीरके समवसरण में गये और उन्हींके पादमूलमें जिन दीक्षा लेकर उनके प्रथम गणधर पदपर आसीन हुए । उन्होंने भगवान् महावीरके उपदेशोंको बारह अंगोंमें ग्रथित किया। उनमें से ग्यारह अंगोंमें तो स्वसमयका प्रतिपादन था किन्तु बारहवें दृष्टिवाद में ३६३ दृष्टियों का ( मतों का ) स्थापनापूर्वक निराकरण था । परन्तु कालक्रमसे वह लुप्त हो गया । आचार्य कुन्दकुन्द ईसा की प्रथम द्वितीय शताब्दी में आचार्य कुन्दकुन्द हुए । उन्होंने अपने ग्रन्थोंमें स्वतन्त्र रूपसे प्रमाणकी तो चर्चा नहीं की है फिर भी ज्ञानकी जो चर्चा उन्होंने की है वह दार्शनिकों की प्रमाण चर्चासे प्रभावित प्रतीत होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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