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________________ पृष्ठभूमि "स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ॥ -स्वयंभू० १०२ । हे जिनेन्द्र, स्यात् शब्द केवल जैनन्यायमें है, अन्य एकान्तवादी दर्शनोंमें नहीं है। जैन दर्शन एक द्रव्य पदार्थ ही मानता है। उसे माननेपर दूसरे पदार्थके माननेकी आवश्यकता नहीं रहती। गुण और पर्यायके आधारको द्रव्य कहते हैं। ये गुण और पर्याय इस द्रव्यके ही आत्मस्वरूप हैं । इसलिए ये किसी भी हालतमें द्रव्यसे पृथक नहीं होते । द्रव्यके परिणमनको पर्याय कहते हैं । जो बतलाता है कि द्रव्य सदा एक-सा कायम न रहकर प्रतिक्षण बदलता रहता है। जिसके कारण द्रव्य सजातीयसे मिलते हुए और विजातीयसे भिन्न प्रतीत होते हैं वे गुण कहलाते हैं। ये गुण ही अनुवृत्ति और व्यावृत्तिके साधन होते हैं। इसीसे जैन दर्शनमें सामान्य और विशेषको पृथक् माननेकी आवश्यकता नहीं रहती । गुण, कर्म, समवाय, सामान्य, विशेष और अभाव ये सब द्रव्यकी ही अवस्थाएँ हैं। इनमें से कोई भी स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है। वेदान्त दर्शन पर्यायको अवास्तविक और पर्यायसे भिन्न द्रव्यको वास्तविक मानता है। जैन दर्शन दोनोंको ही वास्तविक मानता है। इसीसे वस्तु न केवल द्रव्य रूप है और न केवल पर्याय रूप है, किन्तु द्रव्य पर्यायात्मक है। वही प्रमाणका विषय है। जैन दर्शन प्रमाण और नयसे वस्तुकी सिद्धि मानता है । स्वपर प्रकाशक ज्ञान ही प्रमाण है। ज्ञान आत्माका स्वरूप है, अतः उसे आत्मा शब्दसे भी कहते हैं । अनन्त धर्मवाली वस्तु के किसी एक धर्मको जाननेवाले ज्ञानको नय कहते हैं। जो नय वस्तुको केवल द्रव्यको मुख्यतासे ग्रहण करता है, उसे द्रव्यार्थिक नय कहते हैं, और जो नय वस्तुको पर्यायकी मुख्यतासे ग्रहण करता है, उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं। ये नय भो स्याद्वाद या अनेकान्तवादकी देन हैं; इसीसे अन्य दर्शनोंमें इनको ध्वनि सुनाई नहीं पड़ती। अनेकान्तवादके दो फलितवाद हैं-सप्तभंगीवाद और नयवाद । अतः स्याद्वाद सप्तभंगीवाद और नयवाद, ये सब जैन न्यायको विशेषताएँ हैं। जैन विद्वानोंने उनके निरूपण और विवेचनमें बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे हैं और अनेकान्तवादके बलसे ही अन्य दार्शनिकोंका निराकरण और खण्डन किया है। जब बादरायण-जैसे सूत्रकारोंने उसके खण्डनमें सूत्र रचे और उन सूत्रोंके भाष्यकारोंने अपने भाष्योंमें स्याद्वादका खण्डन किया तथा वसुबन्धु, दिग्नाग, धर्मकीर्ति और शान्तरक्षित-जैसे बड़े-बड़े प्रभावशाली बौद्ध विद्वानोंने भी अनेकान्तवादकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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