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________________ जैन न्याय सर्वथा उपयुक्त है । विकल्प या अध्यवसाय, अपोहवाद और स्वार्थानुमानके सिद्धान्त उसी परार्थानुमानकी देन हैं।' इस तरह न्यायशास्त्रमें अनुमान प्रमाण और उसके अंग-उपांगोंका ही प्राधान्य है और उसको लेकर स्वतन्त्र ग्रन्थ रचे गये हैं तथापि जब हम बौद्धन्याय या जैनन्याय शब्दका प्रयोग करते हैं तो उसका तात्पर्य केवल अनुमान प्रमाण न होकर कुछ विशेष होता है । और उन विशेषताओंके कारण ही वह बौद्धन्याय या जैन न्याय कहा जाता है। २. जैन न्याय प्रत्येक दर्शन या धर्मके प्रवर्तककी एक विशेष दृष्टि होती है जो उसकी आधारभूत होती है। जैसे भगवान् बुद्धको अपने धर्मप्रवर्तनमें मध्यम प्रतिपदा दृष्टि है या शंकराचार्यकी अद्वैत दृष्टि है। जैनदर्शनके प्रवर्तक महापुरुषोंकी भी उसके मूलमें एक विशेष दृष्टि रही है। उसे ही अनेकान्तवाद कहते हैं। जैनदर्शनका समस्त आचार-विचार उसीके आधारपर है। इसीसे जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन कहलाता है और अनेकान्तवाद तथा जैनदर्शन शब्द परस्परमें पर्यायवाची-जैसे हो गये हैं। वस्तु सत् ही है या असत् ही है, या नित्य ही है, अथवा अनित्य ही है इस प्रकारकी मान्यताको एकान्त कहते हैं और उसका निराकरण करके वस्तुको अपेक्षाभेदसे सत्-असत्, नित्य-अनित्य आदि मानना अनेकान्तवाद है। अन्य दर्शनोंने किसीको नित्य और किसीको अनित्य माना है । किन्तु जैन दर्शन कहता है___ "आदीपमाव्योमसमस्वभावः स्यादवादमुद्रानतिभेदि वस्तु । तन्नित्यमेवैकमनित्यमन्यदिति त्वदाज्ञाद्विषतां प्रलापाः ।।" -स्या० मं० श्लो० ५ दीपकसे लेकर आकाश तक एकसे स्वभाववाले हैं। यह बात नहीं है कि आकाश नित्य हो और दीपक अनित्य हो। द्रव्य दृष्टिसे प्रत्येक वस्तु नित्य है और पर्याय दृष्टिसे अनित्य है। अतः कोई भी वस्तु इस स्वभावका अतिक्रमण नहीं करती क्योंकि सबपर स्याद्वाद या अनेकान्त स्वभावको छाप लगी हुई है। जिन-आज्ञाके द्वेषी ही ऐसा कहते हैं कि अमुक वस्तु केवल नित्य हो है और अमुक केवल अनित्य ही है।। _ 'स्याद्वाद' शब्दमें 'स्यात्' शब्द अनेकान्त रूप अर्थका वाचक अव्यय है । अत एव स्याद्वादका अर्थ अनेकान्तवाद कहा जाता है। यह स्याद्वाद जैनदर्शनकी विशेषता है । इसीसे समन्तभद्र स्वामीने कहा है-- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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