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पृष्ठभूमि
से मोक्ष माना । उन सोलह पदार्थोंमें जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति आदि भी हैं जिनका उपयोग मुख्य रूपसे वाद-विवादमें हो होता है । न्यायदर्शन के न्यायसूत्र नामक मूल ग्रन्थ में इन सबका सांगोपांग वर्णन है । जब बौद्धों और जैनोंने न्यायशास्त्र की ओर ध्यान दिया न्यायदर्शन उसमें पूर्ण उन्नति कर चुका था ।
न्यायसूत्रोंके उद्भवका सुनिश्चित काल ज्ञात नहीं है । किन्तु एक सुव्यवस्थित दर्शन के रूपमें न्यायदर्शनका उद्भव अन्य प्राचीन दर्शनोंसे अर्वाचीन है । बोद्ध दार्शनिक नागार्जुन ने अपनी कृति में न्यायदर्शन के सोलह पदार्थोंपर आक्षेप किया है । अतः नागार्जुन के समय में न्यायसूत्र किसी-न-किसी रूपमें उपस्थित होना चाहिए । तबतक बौद्ध धर्ममें किसीने न्यायशास्त्रकी ओर ध्यान नहीं दिया था । जब नागार्जुन के सिद्धान्तको अमान्य किया गया तो असंग और वसुबन्धुने न्यायशास्त्रकी ओर ध्यान दिया | वसुबन्धु तर्कशास्त्रका प्रसिद्ध विद्वान् हुआ । उसने उसपर तीन प्रकरण भी रचे थे । उनके पश्चात् दिग्नाग और धर्मकीर्तिने न्यायशास्त्रको यथार्थ रूपमें स्वीकार करके बौद्धन्यायको प्रतिष्ठित किया । बौद्धन्यायके पिता दिग्नाग और उनके अनुयायी धर्मकीर्तिके पश्चात् जैनपरम्परामें जैनन्यायके प्रस्थापक अकलंकदेवका उदय हुआ, और जैनदर्शन में जैनन्यायपर स्वतन्त्र ग्रन्थोंकी रचना हुई । जैसे युद्धकालमें युद्धके उपकरणोंका विकास होता है वैसे ही विविध दर्शनोंके पारस्परिक संघर्षकालमें स्वपक्षके रक्षण और परपक्षके निराकरण के लिए तर्कशास्त्रका विकास हुआ ।
न्याय या तर्कशास्त्रका मुख्य अंग प्रमाण है । और प्रमाणके भेदों में से भी अनुमान प्रमाण है । क्योंकि प्रत्यक्ष अगोचर पदार्थोंकी सिद्धि अनुमान प्रमाणसे की जाती है । दूसरोंको समझानेके लिए जो अनुमान प्रयोग किया जाता है उसे परार्थानुमान कहते हैं ।
रसियन विद्वान् चिरविट्स्कीने 'बौद्धन्याय' नामक विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थके प्रारम्भमें लिखा है कि बौद्धन्यायसे हम तर्कशास्त्रकी उस पद्धतिका बोध करते हैं जिसका निर्माण ईसाकी ६-७वीं शताब्दी में बौद्धधर्मके दो महान् तार्किक दिग्नाग और धर्मकीर्तिने किया था । इनके साहित्य में सबसे प्रथम परार्थानुमानका वर्णन है । अतः परार्थानुमान ही तर्क या न्याय शब्दसे कहे जानेके लिए
१. विद्याभूषण, हिस्ट्री ऑफ इ० ला०, पृ० २५७ । २. बुद्धिष्ट लॉजिक, भा० १, पृ० २६ ।
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