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________________ १९२ जैन न्याय होनेवाली ) है। तथा यदि उसको नित्य मानेंगे तो स्थिति वगैरहके एक साथ. होनेका प्रसंग आता है। यदि सत्त्व आदिकी उद्भूतवृत्तिता अनित्य है तो वह किससे उत्पन्न होती है ? प्रकृति और ईश्वरसे ही, या किसी अन्यसे, अथवा स्वतन्त्र रूपसे ? प्रथम पक्षमें उद्भूतवृत्तिताके सदा सद्भावका प्रसंग आता है क्योंकि उसके कारण प्रकृति और ईश्वर नित्य होनेसे सदा रहते हैं। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रकृति और ईश्वरके सिवाय कोई तीसरा कारण आप मानते ही नहीं। तीसरे पक्षमें उद्भूतवृत्तिताका आविर्भाव काल और देशके नियमसे नहीं हो सकता; क्योंकि जो स्वतन्त्रतापूर्वक होता है उसका देशनियम और कालनियम नहीं बन सकता। अतः विचार करनेपर ईश्वरमें कर्तापना किसी भी तरह नहीं बनता। अतः कर्ता होनेसे ईश्वर सर्वज्ञ नहीं हो सकता । ऐश्वर्यका आश्रय होनेसे भी ईश्वर सर्वज्ञ नहीं हो सकता: क्योंकि विचार करनेपर ईश्वर में ऐश्वर्य भी नहीं बनता । इसका विशेष इस प्रकार है-ईश्वरमें ऐश्वर्य स्वाभाविक है या प्रकृतिकृत है ? स्वाभाविक तो हो नहीं सकता, क्योंकि सांख्य ऐश्वर्यको बद्धिका धर्म मानते हैं। और आत्मामें केवल चैतन्यको स्वाभाविक मानते हैं । यदि ऐश्वर्य प्रकृतिकृत है अर्थात् जब प्रकृति बुद्धिरूप परिणमन करती है तब उसकी अवस्था विशेष धर्म-ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य आदि प्रकट होते हैं, तब तो आपने ही ईश्वर में ऐश्वर्यका अभाव बतला दिया क्योंकि जब ऐश्वर्य बुद्धिका परिणाम है और ईश्वर उससे भिन्न है तो ईश्वरमें ऐश्वर्य कैसे हो सकता है, अन्यथा अन्य आत्माओं में भी ऐश्वर्य मानना पड़ेगा। तथा, अपने इष्ट कार्यके सम्पादन में द्रव्य सहाय आदिको सम्पन्नताको ऐश्वर्य कहते हैं, यदि ईश्वर अपने किसी इष्ट कार्यको नहीं करता, केवल वस्तुको ज्योंका त्यों जानता है, तो वह इतने ही से ऐश्वर्यवान् कैसे हुआ। जो जिसे जानता है वह उस विषयमें ईश्वर है, ऐसी तो बात नहीं है क्योंकि ऐसा माननेसे अतिप्रसंग दोष आता है। यदि कहा जाता है कि ईश्वरका ज्ञान कालसे विच्छिन्न नहीं होता, अत: वही ईश्वर है, अन्य नहीं। तो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि कालसे विच्छिन्न न होनेसे नित्यताकी सिद्धि होती है, ऐश्वर्यकी नहीं। अतः जगत्का कर्ता होने आदिके द्वारा सर्वशका सद्भाव सिद्ध नहीं होता। किन्तु कर्मोके आवरणके हट जानेपर आत्मा ही सर्वज्ञ सिद्ध होता है । ऐसा आगे बतलायेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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