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प्रमाणके भेद
नहीं है, ईश्वर सर्वथा नित्य होनेसे अविकारी है, अतः प्रकृति उसमें अतिशयका आधीन नहीं कर सकती। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है क्योंकि जब ईश्वर और प्रकृति दोनों कारण सर्वत्र सर्वदा वर्तमान हैं और उनको शक्ति भी अप्रतिहत है तो अविकल कारण होनेसे सभी कार्य एक साथ उत्पन्न हो जायेंगे। जो जब अविकल कारण होता है वह तब उत्पन्न होता ही है, जैसे अन्तिम क्षण अवस्थाको प्राप्त कारण सामग्रीसे अंकुरकी उत्पत्ति होती ही है। नित्य व्यापी ईश्वर और प्रधान नामक दो कारणोंके अधीन समस्त कार्य अविकल कारण हैं, अत: उनकी उत्पत्ति एक साथ होगी ही।
सांख्ययद्यपि ईश्वर और प्रकृति रूप दोनों कारण सर्वत्र सर्वदा वर्तमान रहते हैं फिर भी सर्वत्र सर्वदा कार्योत्पत्ति नहीं होती, क्योंकि कार्योंकी स्थिति, उत्पत्ति और विनाशमें क्रमसे प्रकटपनेको प्राप्त सत्त्व, रज और तम सहायक हैं और प्रकटपनेको प्राप्त सत्त्व, रज और तम क्रमसे होते हैं ।
जैन-यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि जिस समय ईश्वर और प्रकृति स्थिति, उत्पत्ति और प्रलय में-से किसी एकको उत्पन्न करते हैं तो उनमें शेष दोको उत्पन्न करनेकी शक्ति है या नहीं ? यदि है तो सृष्टिके समयमें भी स्थिति और प्रलयका प्रसंग आता है; क्योंकि सृष्टिकी तरह वे दोनों भी अविकल कारण हैं। इसी तरह स्थितिके समय उत्पाद और विनाशका तथा विनाशके समय स्थिति और उत्पादका प्रसंग आता है। किन्तु यह युक्त नहीं है; क्योंकि परस्परके परिहारसे रहनेवाले उत्ताद आदि धर्मोंका एकधर्मी में एक साथ सद्भाव होना प्रतीतिविरुद्ध है। यदि एकको उत्पन्न करने के समय शेष दोको उत्पन्न करनेकी शक्ति नहीं है तो स्थिति आदिमें-से जिसको उत्पन्न करनेकी शक्ति है वही एक कार्य सदा होगा, शेष दोनों नहीं होंगे; क्योंकि ईश्वर और प्रकृतिमें उन दोनोंको उत्पन्न करनेकी शक्ति नहीं है। और यतः दोनों अविकारी हैं उनमें कोई विकार होना शक्य नहीं है, अतः उनमें पुनः शक्तिकी उत्पत्ति हो नहीं सकती अन्यथा वे दोनों नित्य एक स्वभाववाले नहीं हो सकते ।
सांख्य-ईश्वर और प्रकृतिमें यद्यपि स्थिति, उत्पाद और विनाश तीनोंको उत्पन्न करनेको सामर्थ्य है तथापि जब उद्भूतवृत्ति (प्रकटपनेको प्राप्त)रज सहायक होता है तब वे उत्पत्ति करते हैं, जब सत्त्व सहायक होता है तो स्थिति करते हैं और जब तम सहायक होता है तो प्रलय करते हैं । ____ जैन-यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि सत्त्व, रज और तमकी उद्भूतवृत्तिता नित्य है या अनित्य है । नित्य तो है नहीं; क्योंकि वह कादाचित्क ( कभी-कभी
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