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जैन न्याय
है। जो ध्यानी उसका ध्यान करते हैं, वचनसे उसका जप करते हैं उनको वह अभीष्ट फल देता है। कालके द्वारा उसका कभी विनाश नहीं होता, अतः वह कपिलमहर्षि आदि पूर्व गुरुओंका भी गुरु है। कपिलादि कल्प महाकल्प आदि कालके द्वारा नष्ट हो जाते हैं, किन्तु ईश्वर सदा अवस्थित रहता है ।
उत्तरपक्ष-सांख्यका उक्त कथन अविचारित रमणीय है। यतः उस ईश्वर. का स्वरूप क्या क्लेश आदिसे अछूता होना मात्र है या क्लेश आदिसे अछता रहते हुए सर्वज्ञ होना उसका स्वरूप है ? प्रथम पक्षमें तो वह मुक्त ही हुआ, ईश्वर नहीं, क्योंकि अन्य मुक्त भी क्लेश आदिसे अछूते होते हैं। फिर भी यदि वह ईश्वर है तो अन्य मुक्तोंको भी ईश्वरत्वका प्रसंग आता है।
सांख्य-मुक्त जीव बन्धसे सर्वदा अस्पृष्ट नहीं होते, अतः उन्हें ईश्वरत्वका प्रसंग नहीं आता।
जैन-ईश्वर भी बन्धसे सर्वदा अस्पृष्ट नहीं हो सकता। इस बातका कथन आगे मोक्षके कथनमें किया जायेगा।
दूसरे पक्षमें अर्थात् यदि क्लेशादिसे अस्पृष्ट होते हुए सर्वज्ञता ईश्वरका स्वरूप है तो उसकी सिद्धि कैसे करते हैं, सब जगत्का कर्ता होनेसे अथवा ऐश्वर्यका आश्रय होनेसे ? प्रथम पक्षमें योगोंके द्वारा माने गये ईश्वरके पक्षमें जो दूषण दिये गये हैं वे सब दूषण आते हैं। तथा यदि आप ईश्वरको कर्ता मानते हैं तो आपने आत्माको जो 'अकर्ता निर्गुणः शुद्धः' आदि कहा है, वह नहीं बनता। ___ सांख्य-अकर्ता आदि अन्य आत्माओंका ही लक्षण है, ईश्वरका नहीं। ईश्वर अन्य आत्माओंसे विशिष्ट है । अतः उसमें कोई दोष नहीं।
जैन-तब तो शुद्धता आदि भी ईश्वरका स्वरूप नहीं हो सकेगी और इस तरह ईश्वर अन्य आत्माओंसे अत्यन्त विशिष्ट हो जायेगा।
अथवा ईश्वर कर्ता रहे, किन्तु वह ईश्वर स्वतन्त्ररूपसे कार्य करता है या प्रकृति के अधीन होकर कार्य करता है ? यदि वह स्वतन्त्र कार्य करता है तो योगोंके द्वारा माने गये ईश्वरसे उसमें कोई विशेषता नहीं है अतः उसमें दूषण देनेसे ही इसको भी दूषित समझ लेना चाहिए। यदि वह ईश्वर प्रकृतिके अधीन होकर कार्य करता है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि आगे प्रकृतिके स्वरूपका निराकरण करेंगे। तथा ईश्वर प्रकृतिके अधीन क्यों है ? क्या प्रकृति ईश्वरमें कुछ अतिशयका आधान करती है या मिलकर कार्य करती है ? पहला पक्ष ठीक
१. योगसू० ११२५ । २. न्या० कु० च०, पृ० १११-११४ ।
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