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________________ प्रमाणके भेद १८९ धर्म-अधर्मस्वरूप दक्षिणाबन्ध है। इन तीनों प्रकारके बन्धोंसे ईश्वर ही सर्वदा अछूता रहता है । मुक्तात्मा तो इन तीनों बन्धोंको विवेक ज्ञानसे, माध्यस्थ्यसे तथा कर्मफलके उपभोगसे नष्ट करके ही कैवल्यको प्राप्त हुए हैं, भगवान् ईश्वर तो सदा ही मुक्त है, सदा ही ईश्वर है, न तो उसके संसारसे मुक्त हुए आत्माओंकी तरह पूर्वा कोटि है और न प्रकृतिलीन तत्त्वज्ञानी योगियोंकी तरह अपरा कोटि है। योगी लोग मुक्तिको प्राप्त करके भी पुनः बन्धनमें पड़ जाते हैं। ईश्वरमें निरतिशय उत्कृष्ट सत्त्वशाली बुद्धि रहती है अतः उससे उसकी ऐश्वर्यशालिता सिद्ध है तथा शास्त्रसे उसकी निरतिशय उत्कृष्ट सत्त्वशालिता सिद्ध है । शास्त्रका और निरतिशय सत्त्वके उत्कर्षका अनादि सम्बन्ध होनेसे अन्योन्याश्रय दोष नहीं आता। ईश्वरका वह ऐश्वर्य आठ प्रकार का है-अणिमा, महिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व और यत्रकामावसायिता। अणुशरीर होकर ईश्वर समस्त प्राणियोंको दिखाई न देते हुए जो समस्त लोगमें संचार करता है यह अणिमा है। लधु होकर वायुको तरह विचरण करता है, यह लघिमा है । वह समस्त लोकमें पूजित और बड़ोंसे भी बड़ा होता है, यह महिमा है। जो-जो वह मनमें सोचता है वह-वह उसे प्राप्त होता है, यह प्राप्ति है। विषयोंको भोगने में समर्थ होता है, यह प्राकाम्य है। तीनों लोकोंका स्वामी होता है, यह ईशिता है। स्थावर और जंगम प्राणियोंको अपने वशमें करता है तथा जितेन्द्रिय होता है, यह वशिता है। ब्राह्म, प्राजापत्य, दैव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, पैत्र और पिशाच इन आठ देवयोनियों में पांच प्रकारके तिर्यंचों और मनुष्योंमें जहाँ-जहाँ उसकी इच्छा होती है वहीं बसता है, यह यत्रकामावसायिता है । इन ज्ञान और ऐश्चर्य आदिका प्रकृष्ट और प्रकृष्टतम रूपसे तारतम्य देखा जाता है। जिसमें इनका सर्वाधिक प्रकर्ष पाया जाता है वही ईश्वर है। इस अनुमानसे ईश्वरको सिद्धि होती है । जो इस प्रकार है जिसके तारतम्यका प्रकर्ष-हीनता और अधिकताको चरमसीमा देखा जाता है, उसका कहीं पर्यवसान होता है। जैसे परिमाणका प्रकर्ष आकाशमें। ज्ञान और ऐश्वर्य आदि धर्मोके तारतम्यका प्रकर्ष देखा जाता है। उस ईश्वरकी प्रवृत्ति समस्त संसारियोंपर अनुग्रह करनेके लिए ही होती है। वह कल्प, प्रलय और महाप्रलयमें 'समग्र जगत्का उद्धार करूँगा' ऐसी प्रतिज्ञा करके ही स्थित रहता १. माठरवृ०, पृ० ४१ । योगसूत्र व्या० भा०, ३१४५ | २. माठरवृ०, पृ० ७० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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