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________________ १८८ जैन न्याय से या समाधिसे उत्पन्न हुए धर्मके माहात्म्यसे, या ध्यानमात्रसे। प्रथम पक्ष युक्त नहीं है; क्योंकि ईश्वर तो अशरोरी है उसके मुक्तास्माकी तरह न तो मन है और न इन्द्रियाँ हैं। यदि हैं तो वह सर्वज्ञ नहीं हो सकता, क्योंकि इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान नियत अर्थको ही जानता है । समाधि-विशेष और अनुध्यान भी ज्ञानविशेष हो हैं और ईश्वर अभीतक भी असिद्ध है तब स्वयंसे स्वयंकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? जब समाधि-विशेष ही असम्भव है तो उससे उत्पन्न हुआ धर्म ईश्वरमें कैसे हो सकता है, जिससे उसके माहात्म्यसे ज्ञानकी उत्पत्ति सम्भव हो। तथा अशरीरी ईश्वरमें समाधि भी कैसे सम्भव है ? अतः कारणके असम्भव होनेसे ईश्वरमें ज्ञानका सद्भाव नहीं बनता । ऐसी स्थितिमें ईश्वरमें बुद्धिमत्ता कैसे सिद्ध हो सकती है । तथा ईश्वरको माननेमें संसारका ही लोप हो जाता है; क्योंकि ईश्वरके व्यापारसे पहले शरीर और इन्द्रिय वगैरहका अभाव होनेसे सब आत्माओंके बुद्धि आदि गुणोंका भी अभाव होगा और शरीर इन्द्रिय वगैरहके अभाव में तथा बुद्धि आदि विशेष गुणोंके अभावमें आत्यन्तिक शुद्धिको प्राप्त आत्माओंको अमुक्त मानना युक्त नहीं है। इस प्रकार संसारकी रचनामें प्रवृत्त हुआ ईश्वर संसारका अभाव कर देता है यह तो उसकी बड़ी भारी बुद्धिमत्ता है ? अतः योगके द्वारा माना गया ईश्वर समस्त जगत्का जनक नहीं हो सकता और इसलिए वह सर्वज्ञ भो सिद्ध नहीं होता। ईश्वरके स्वरूपके विषयमें सांख्यका पूर्वपक्ष योगसूत्रमें लिखा है ___ "क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः ।। १-२४॥" __ क्लेश, शुभ-अशुभ कर्म उन कर्मों के फलका उपभोग रूप विपाक तथा आशय ( नाना प्रकारके तदनुरूप संस्कार ) से अछ्ता जो पुरुष-विशेष है वह ईश्वर है । किन्तु मुक्तात्मा ईश्वर नहीं है; क्योंकि वे बन्धसे सर्वदा अछते नहीं होते । जो सर्वदा बन्धसे मुक्त है और जिसे कभी भी क्लेशादि नहीं सताते वही ईश्वर है । ईश्वरके सिवाय जो अन्य मुक्तात्मा है वे ऐसे नहीं हैं। उनके प्राकृत, वैकारिक और दक्षिणके भेदसे तीन प्रकारका बन्ध होता है। आत्मा और अनात्माके विवेकका न होना प्राकृतबन्ध है। विषयोंमें आसक्तिका होना वैकारिक बन्ध है । और १. न्या० कु० च०, पृ० १०६-१११ । २. सां० का०, माठरवृत्ति, पृ० ६२ आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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