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________________ प्रमाणके भेद समय क्यों नहीं होते ? यदि कहा जाता है कि उनके कारणोंका अभाव है तो पुनः वही प्रश्न होता है कि वे कारण ईश्वरके अधीन हैं या नहीं, और इस प्रकार अनवस्था दोष आता है। जगत्के निर्माणमें ईश्वरकी प्रवृत्ति अपनी रुचिके अनुसार होती है, या कर्मको परवशतासे होती है, या करुणासे होती है, या धर्म आदिके प्रयोजनके उद्देश्यसे होती है, या क्रीड़ासे होती है, या लोगोंका निग्रह और अनुग्रह करनेके लिए होती है, या स्वभावसे होती है ? यदि रुचिके अनुसार ईश्वर जगत्के निर्माणमें प्रवृत्त होता है तो कभी सृष्टि बिलकुल विलक्षण भी हो सकती है। यदि ईश्वर कर्माधीन है तो उसकी स्वतन्त्रतामें हानि आती है, ईश्वरत्व या स्वातन्त्र्य तो यही है कि अन्य किसीका मुख देखना न पड़े। यदि ईश्वर करुणावश जगत्की रचना करता है तो दयालु होनेसे एक साथ सभीको ऐश्वर्यशाली बनाना चाहिए। तब संसारमें कोई दुःखी ही न रहेगा, क्योंकि दयालुको यही दयालुता है कि दूसरोंको दुःखका लेश भी न हो। नैयायिक-पूर्व उपाजित कर्मों के वश होकर ही प्राणी दुःख उठाते हैं उसमें ईश्वर क्या कर सकता है ? जैन-तब ईश्वरका क्या पौरुष रहा। कर्म तो उपभोगसे ही क्षय होते हैं । यदि ईश्वर अदृष्टकी अपेक्षा करके जगत्का निर्माण करता है तो ईश्वरको माननेसे . क्या लाभ है ? क्योंकि यदि ईश्वर अदृष्टके अधीन है तो जगत्को ही अदृष्टके अधीन मान लेना चाहिए, इस अन्तर्गडु ईश्वरसे क्या लाभ ? यदि ईश्वर धर्म आदि प्रयोजनके उद्देश्यसे जगत्के निर्माणमें प्रवृत्ति करता है तो वह कृतकृत्य कैसे हो सकता है, क्योंकि जो कृतकृत्य हो जाता है उसे धर्मादिका प्रयोजन नहीं रहता। यदि ईश्वर क्रीड़ावश प्रवृत्ति करता है तो वह साधारण जनकी तरह वीतराग कैसे हुआ। ईश्वर परमपुरुष है और बच्चोंकी तरह क्रीड़ा करता है यह तो महान् आश्चर्य है । इसी तरह यदि वह शिष्ट जनोंके अनुग्रह और दुष्ट जनोंके निग्रहके लिए प्रवृत्ति करता है तो वह वीतराग और वीतद्वेष कैसे हुआ। जैसे सूर्य स्वभावसे ही प्रकाशित होता है वैसे ही ईश्वर यदि स्वभावसे ही जगत्के निर्माणमें प्रवृत्ति करता है तो अचेतन भी जगत्को प्रवृत्ति स्वभावसे ही हो, एक अधिष्ठाताको कल्पनासे क्या लाभ है ? अनादिकालसे जगत् अपने स्वभावसे ही स्थित है। तथा बुद्धिमान ईश्वरकी बुद्धि नित्य है या अनित्य ? नित्य तो हो नहीं सकती, क्योंकि नित्यता अनुमानसे भी और प्रतीतिसे भी बाधित है। यदि अनित्य है तो किससे उस बुद्धिकी उत्पत्ति होती है-इन्द्रिय और पदार्थके सन्निकर्षसे या समाधि-विशेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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